Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 466
________________ समय-समय उत्पाद व्यय घ्रौव्य के कारण पर्याये बदलते रहने से द्रव्यत्व गुणधारी है । किसी न किसी के ज्ञान का विषय होने से प्रमेयत्व गुणधारी है । सभी द्रव्य व गुण अपनी-अपनी सत्ता रूप बने रहने से अगुरुलघुगुणधारी है । कुछ न कुछ आकर होने के प्रदेशत्व गुण धारी है। इस प्रकार अनेक गुणो से युक्त लोक मे इन छहो द्रव्यो का पसारा है जिनकी सत्ता बराबर बनी रहती है । इनकी पर्यायो का अलटना-पलटना सदा से है और सदा बना रहेगा । लोक मे जितने द्रव्य है वे कभी नाश को प्राप्त होने वाले नही और न ही कोई द्रव्य नवीन पैदा होता है अर्थात न तो सत का नाश होता है और न असत का उत्पाद होता है, केवल पर्यायें ही नवीन पैदा होती है और नाश को प्राप्त होती है। द्रव्य की पर्याये सूक्ष्म व स्थूल, क्षणिक व चिर स्थायी, सदृश व विसदृश होती है । शुद्ध द्रव्यो की पर्याये तो सदृश ही होती है और अशुद्ध वैभाविक पर्याये सदृश भी प्रौर विसदृश भी होती है । पदार्थों की वैभाविक गुण पर्यायो (जिन्हे अर्थ पर्याय भी कहते है ) के गुणाशो मे तो कमी बेशी प्रतिक्षण होती ही हैं जो प्रत्यक्ष दिखाई देती है किन्तु स्वाभाविक शुद्ध पर्यायो के गुणाशो मे भी कभी-बेशी होती है जिसे गुणो मे षट्गुणी हानि - वृद्धि कहते है । स्थूल रूप मे यह दृष्टिगत नही होती, सूक्ष्म रूप मे ही होती है । द्रव्यो के आकार जिन्हे व्यजन पर्याय कहते है वैभाविक दशा में बदलते रहते है किन्तु स्वाभाविक पर्याय मे सदैव एकसे बने रहते है । प्रत्येक छोटा व बडा, सूक्ष्म व स्थूल, शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य अपनी पर्याय के लिए तो उपादान रूप है तथा दूसरे कतिपय द्रव्यो की पर्यायो के लिए निमित्त होता है तथा उसके परिणमन मे अन्य द्रव्य निमित्त होते है । लौकिक इस व्यवस्था में ही एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता कहा जाता है । यद्यपि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने मे पूर्ण स्वतंत्र है, अविनाशी है, परिणमनशील है। किन्तु जीव व पुद्गल की स्वाभाविक व वैभाविक दोनो अवस्थाओ मे एक द्रव्य दूसरे से प्रभावित रहता है । स्वाभाविक दशा के अर्थ पर्याय के परिणमन मे तो काल द्रव्य निमित्त है, व्यजन पर्याय आकाश व काल दोनो द्रव्य निमित्त है तथा वैभाविक परिणमन मे काल व आकाश सहित द्रव्य व भाव रूप से अन्य पदार्थ भी निमित्त होते हैं। व्यजन पर्याय मे धर्म व अधर्म द्रव्य में से कोई एक निमित्त कारण बना रहता है । इसे द्रव्यो का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी कहते है, कर्ता - कर्म व्यवस्था भी कहते है । द्रव्यो की पर्यायों का परस्पर में षटकारक रूप से लोकव्यवहार होता है। शुद्ध द्रव्य की तो एक ही पर्याय मे छहो कारक लागू हो जाते हैं किन्तु द्रव्यो की वैभाविक प्रशुद्ध अनेक पर्यायो मे षटकारक व्यवहृत होते है । लौकिक वातावरण मे यह इन दृष्टियो से ठीक ही कहा जाता है कि जीव तथा पुद्गल द्रव्य परस्पर में एक-दूसरे को बहुत कुछ देते लेते रहते हैं - जीव द्रव्य अपने ज्ञान गुण तथा शुद्ध व अशुद्ध स्वाभाविक व वैभाविक भावो द्वारा और पुद्गल अपने रूप-रस, गन्ध व स्पर्श गुणो द्वारा तथा कार्माण वर्गणात्रो मे कर्म रूप शक्ति द्वारा, तथा अन्य अनेक गुणो द्वारा लोक व्यवहार में जब जीव अपने बुद्धि व पुरुषार्थ द्वारा अन्य द्रव्यों के परिणमन मे निमित्त होता है तो वह उनकी पर्यायों का कर्ता कहा जाता है । स्वभाव से ये हो द्रव्य अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि मे न आने योग्य है । ( पुद्गल जो दिखाई देता है वह भी स्वाभाविक दशा मे अणु रूप होकर दिखाई नही देता केवल स्थूल स्कन्ध के रूप ४२८ ]

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