Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 467
________________ में ही दिखता है ) धर्म, अधर्म, आकाश व काल चार द्रव्य तो सदैव अपने स्वभाव में परिणमनं करते है तथा अन्य द्रव्यो के परिणमन मे निमित्त कारण है। शेप जीव और पुद्गल दोनो द्रव्य स्वभाव रूप भी परिणमन करते है तथा एक-दूसरे से प्रभावित होकर विभाव रूप भी परिणमन करते हैं । इन दोनो द्रव्यो मे एक विभाविकी नाम का गुण पाया जाता है जिसके कारण इनका वैभाविक रूप परिणमन करना भी एक वैभाविको स्वभाव अर्थात गुण है। इस गुण का कार्य है वन्य के अन्य विशेष गुणो को विकार रूप परिणमन कराना अर्थात् विकार मे निमित्त कारण रहना। ___ यह गुण स्वाभाविक दशा मे रहता हुआ तो शुद्ध परिणमन करता है । तथा अन्य गुणो मे भी किसी प्रकार का निमित्त नहीं होता किन्तु इसी गुण के वैभाविक अर्थात् अन्य द्रव्य के निमित्त कारण से अशुद्ध परिणमन होने पर जीव व पुद्गल के अन्य गुण भी वैभाविक रूप परिणमन हो जाते है जिसके कारण लोक का यह रूप नजर आता है। ससारी सभी जीव अनादि काल से वभाविक रूप परिणमन कर रहे है, पुद्गल की भी यही दशा है। जीव एक बार स्वाभाविक शुद्ध अवस्था को प्राप्त होकर फिर कभी भी वैमाविक परिणमन को प्राप्त नहीं होते तथा पुद्गल स्वाभाविक दशा को प्राप्त होकर भी निमित्त कारण मिलने पर पुन वभाविक दशा को प्राप्त हो सकता है । जीव को वैभाविक दशा अर्थात् ससार मे रोकने वाले राग-द्वेष-मोह है जो पूर्व के सस्कारो से वीज वृक्ष की भांति बने रहते है, एक बार उनका वीज नष्ट होने पर पुनः पैदा नहीं हो सकते। ___ इस प्रकार लोक मे द्रव्यो के परिणमन की यह प्रगति है जिसके कारण यह विश्व पूर्ण रूप मे शुद्ध नहीं किन्तु शुद्धता के लिए सदैव परिणमनशील है। इसके नियमो मे बहुत से विकार पाए जाते है जिन्हें दूर करने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। इसमे उन्नति के प्रयत्न भी आकस्मिक घटनाओं के कारण अवनति को प्राप्त होते रहते है। इन्ही कारणो से यह विश्व न तो पूर्णतया कभी शुद्ध जीव रूप ही हो पाता और न ही शुद्ध पुद्गल रूप हो पाता है किन्तु दोनो के एक मिश्रित तथा विकृत रूप में पाया जाता है जिसमे दोनो द्रव्य एकदूसरे के विभाव रूप परिणमन मे कारण बने रहते है। यह सव करिश्मा वैभाविकी शक्ति का ही है अन्यथा इस लोक मे जीव तथा पुद्गल दोनो द्रव्य सूक्ष्म-सूक्ष्म अवस्था मे रहते हुए सब शून्य सरीखा दिखाई देता । उस अवस्था को एक ब्रह्म मात्र भी कह सकते है। अर्थात् जीव और जड पुद्गल का पूर्णतया स्वाभाविक परिणमन तथा वैभाविकी शक्ति को माया कह सकते है जिसके कारण इस लोक मे जीव और पुद्गल की ये सब पर्याये दृष्टिगत हो रही है।। इस प्रकार यह लोक की व्यवस्था चल रही है और सदैव चलती रहेगी। जीवो का ससार परिभ्रमण-जम्मन मरण चलता रहेगा। कुछ जीव काल लब्धि प्राप्त होने पर विशेष निज पुरुषार्थ द्वारा इस परिभ्रमण से मुक्त होते रहेंगे । ससार मे जीव कर्मचेतना-कतत्व वृद्धि तथा कर्मफल चेतना-कर्मफल भोक्त्रित्व बुद्धि के कारण जन्म-मरण व सासारिक सुख-दुख को भोगते हुए भ्रमण कर रहे है । निज स्वभाव स्वरूप ज्ञान चेतना प्राप्त होने पर ही इस भ्रमण से छुटकारा होता है। [ ४२६

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