Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 470
________________ (१) सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थ सूत्र की उपलब्ध टीकाओ में सर्वार्थसिद्धि सबसे पुरानी है । यद्यपि आचार्य समन्तभद्र ने इस पर गन्धहस्ति महाभाष्य नाम की एक टीका लिखी थी, ऐसी प्रसिद्धि है । पर वह अभी तक उपलब्ध नही हुई है। इसलिये सर्वार्थसिद्धि ही इसकी प्रथम टीका मानी जाती है । लक्षणों की दृष्टि से इसका वडा महत्त्व है। इसमे जो लक्षण दिये गये है, उन्होने विद्वानो बहुत प्रभावित किया है । अतः इस टीका ग्रन्थ को लक्षण ग्रन्थ भी माना जाता है। इसमे तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रो के प्रत्येक पद का विशेष अर्थ प्राज्जल भाषा मे किया गया है। इसे वाद की सभी टीकाओ ने आदर्श माना है । आवश्यक स्थलो पर व्याकरण के आधार से अनेकानेक पदो की सिद्धि करते हुए प्रकृति और प्रत्ययो का निर्देश किया गया है । इसके 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शनम्' सूत्र की टीका मे सम्यग्दर्शन के दो भेद किये है- सरागसम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रगम, सवेग, अनुकम्पा और ग्रास्तिक्य आदि चिन्हो से जिसकी अभिव्यक्ति हो, उसे सरागसम्यग्दर्शन तथा आत्मा की विशुद्धिमात्र को वीतराग सम्यग्दर्शन कहते हैं । 'जीवा जीवास्रववन्ध संवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्' इस सूत्र की टीका मे लिखा है कि पुण्य और पान का अन्तर्भाव आस्रव और वन्ध में हो जाता है, इसीलिये सूत्रकार ने नौ पदार्थो की अलग से चर्चा नही की । 'तद्भावाव्यय नित्यम्' सूत्र व्याख्या मैं बतलाया है कि प्रत्येक वस्तु रवभाव से नित्य होकर भी परिणामी है । यदि वस्तु की सर्वथा नित्यता स्वीकार की जाय तो उसमें परिणमन नही बनेगा । फलत. ससार और उसकी निवृत्ति की प्रक्रिया ही गडवडा जायगी । इसी प्रकार वस्तु को सर्वया अनित्य मानने पर कार्य - कारणभाव नही वन सकेगा । इस टीका को महाकलकदेव ने अपने ग्रन्थ--- तत्त्वार्थ वार्तिक मे वार्तिक रूप में अपनाया है। इससे इस टीका का महत्व समझ मे आ जाता है । सर्वार्थसिद्धि से तत्त्वार्थवार्तिक मे और तत्त्वार्थवार्तिक से तत्त्वार्थश्लोकवात्र्तिक में उत्तरोत्तर विशेषता वढती गई। इसका एक मात्र श्रेय सर्वार्थसिद्धि को ही है । सुन्दरतापूर्वक थोडे शब्दो में अधिक अर्थं लिख देना इसकी सबसे बड़ी विशेषता है । बाद मे तत्त्वार्थसूत्र की जितनी भी टीकाएं लिखी गई वे सबकी सव सर्वार्थसिद्धि से प्रभावित है । इसकी रचना प्रशममूर्ति आचार्यवर्यं पूज्यपाद ने पाचवी शताब्दी मे की थी । इष्टोपदेश, समाविशतक और जैनेन्द्र व्याकरण मे भी इनकी प्रतिभा के दर्शन होते है । (२) तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थवार्तिक भाष्य लिखा गया है । इसमे केवल अतिसरल २७ सूत्रो को छोड़कर शेष सभी पर गद्य रूप मे वार्तिको की रचना की गई है। उनकी कुल संख्या २६७० है | सातवी शताब्दी मे सूत्रो पर वार्तिक बनाने को परिपाटी श्रेष्ठ समझी जाती थी । विना वातिको सूत्रो की महत्ता नही मानी जाती थी । अतः महाकलकदेव ने उद्योतकर की शैली मे वार्तिको की रचना की । श्राचार्य गृद्धपिच्छ के सूत्रों में भी जो अनुपपत्तियाँ कल्पनाओ के वल पर सम्भव -' सूत्रेष्वनुपपत्तिचोदनामानी जा सकती थी, उन सभी का परिहार वार्त्तिको में कर दिया गया – ' परिहारो वार्तिकम्' । वात्र्तिको की रचना में कही कुछ क्लिष्टता भी आ गई है । अतः उसकी वृत्ति, ४३२ ]

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