Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 456
________________ जाता है, परन्तु वस्तुत जो जैनो के लिए नही, जैनेतर विचारको के लिए भी प्रेरणा का स्रोत रहा है। उस विभूति को हम कुन्दकुन्द के नाम मे ही अधिक जानते हैं । कुन्दकुन्द को विचारबोली, तत्वज्ञान की शोव-प्रणाली और अहिंया धर्म की प्राचारपद्धति सव कुछ ही वडी विलक्षण, मौलिक और अनूठी सिद्ध हुई । जिम तत्त्वज्ञान और तर्क-प्रणाली की उद्घोपणा तीसरी शताब्दि में नागार्जुन ने और नवी शतानि में आद्य शकराचार्य ने की, कुन्दकुन्द ने वही तत्वज्ञान और तर्कप्रणाली ईसा की एक शताब्दि पूर्व भारत के विचार-प्रागण मे उद्घोपित की। परन्तु खेद है कि साम्प्रदायिक द्वेप की भीपण आधी ने भ्रान्ति का कूडा इतनी अधिक मात्रा में लाकर इकट्ठा किया कि हम कुन्दकुन्द की दमदमानी वरदायिनी प्रतिभा का मही मूत्याकन न कर सके। प्रस्तुत निवन्व मे कुन्दकुन्द की मौलिकता का एक विहंगम दर्शन मायद हमारी आज की वैज्ञानिक एव निष्पक्ष दृष्टि को उक्त हीग अपने वास्तविक महत्वालोक मे पहचाने जाने में मदद दे सके । तत्वज्ञान : सत्तावाद सत्य की खोज में कुन्दकुन्द पगवलम्बी न होकर स्वावलम्बी बने। उन्होंने सत्यासत्य के निर्णय में अपने आत्मज्ञान को ही मुख्य कसौटी के रूप में स्वीकार किया । अत जो कुछ उन्होंने प्रत्यक्ष देखा उसे हमारी विचार प्रक्रिया को सर्व-ग्वीकृत प्रणाली के द्वारा प्रस्तुत किया। स्पष्ट ही कहा - उवोग विसुद्धो जो दिगदावरणतराय मोहरमो। भूदो सयमेवादा जादि पार णेय भूदाण ।। (प्रव० सार-१५) अर्थात् . जिसका उपयोग विशुद्ध है ऐसी प्रात्मा नानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोह ___ रूप रज से रहित स्वमेव होती हुई नयभूत पदार्थो के पार को प्राप्त होती है। अत. शुद्ध आत्माज्ञान के माध्यम से शेयभूत पदार्थ यथारूप जाने जाते है । 'जानना' क्रिया सम्पूर्ण तत्वज्ञान का प्रस्थान-विन्दु है। गजान चूकि परत्व की कामनाबुद्धि से रहित होता है, अत उसका जानना केवल 'विचारना होता है। विचारना निर्णय की प्रक्रिया कहलाती है जिसमें बुद्धिव्यापार का शुद्ध रूप निहित है। निर्णय को व्यक्त इकाई वाक्य (Proposition) है, जिसमे दो पदो की पारस्परिकता एक क्रिया से सयुक्त होती है। अत वाक्य की कोई भी क्रिया उभयमुखी होती है, जिसके टोनो छोरो पर दो वस्तु-मत्य मौजूद होते है । 'जानना' भी एक क्रिया है, जिससे प्रस्थान करने पर हम तुरन्त नाता और जेय दो भत्ताओं के मध्य आ जाते हैं। इस प्रकार ज्ञानव्यापार के परिणमन स्वरूप हमें जो कुछ उपलब्ध होता है वह सब कुछ सत्ता की ही विभिन्न इकाइयाँ है । कुन्दकुन्द कहते है:सत्ता सव्व पयत्या सविस्स स्वा प्रणत पज्जाया। (पचा० सार-८) अर्थात् . सत्ता अनंत पर्याययुक्त, मविश्वरूप, सर्वपदार्थ स्थित है । मत जो कुछ भी हम जानते अथवा देखते हैं वह मत्तायुक्त अवश्य है । सत्ता के विना 'नानना' अथवा 'देखना हो ४३०.]

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