Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 453
________________ गंग शिवमार के मस्तक पर मुकुट रखा । पर वाद चक्रवर्ती के सहोदर बकरस के साथ मिलकर कृतघ्न वन, वही गग शिवमार ने फिर राष्ट्रकूटो पर दूसरी बार तलवार उठाई । पर उस लड़ाई में भी वह बुरी तरह पराजित हुमा। तव भी दयालु गोविन्द चक्रवर्ती के द्वारा उसका राज्य पुन. उसीको दिया गया था। मानो उस उपकार का प्रत्युपकार स्वरूप चक्रवर्ती जब उत्तर भारत के दिग्विजय मे व्यस्त रहे, तव नीतिमार्ग (शिवमार के अनुज का पोता) ने इधर दक्षिण में एकाएक राष्ट्रकूटो पर हमला कर दिया। इस खबर को पाते ही बनवासी के महामण्डलेश्वर जैन वीर वकरस छोड़े गये । कृष्ण सर्प की तरह प्रक्षुब्ध हो, तुरन्त ही समर के लिये तैयार हुए। गग की कृतघ्नता को स्मरण कर उनका हृदय कोष से एकदम पापाण बन गया। या यो कहिए कि वकरसउस समय क्रोध की ज्वालामुखी ही बन गये । परिणामस्वरूप कोलतूर से प्रेपित वकरस की खबर राष्ट्रकूट पहुँचने के पूर्व ही, उनकी सवल सेना रास्ते मे छेडने वाले वीरो को कतल करती हुई केंदाल किले पर साहसपूर्वक हमला किया। यह किला गग नरेशो के प्रधान सेना केन्द्रो में से एक था। कंदाल का यह किला उस समय कर्णाटक मे वहा दुर्भद्य समझा जाता था। लौह कवच तुल्य वह दुर्ग, उसके भीतर के वीर सैनिक और अपार शस्त्रास्त्र आदि सभी कराल काल की तरह हमला करने वाले वकरस के सामने टिक नही सके । शव-सेना के माने की खबर किले के अन्दर पहुचने के पूर्व ही राजसमूह ने प्रवान वार को चूर-चूर किया और पैदल सिपाहियों ने अन्यान्य साधनो द्वारा किले की दीवाल पर चढकर, रक्षक सिपाहियो को कतल कर डाला । रात को किले के अन्दर लोगो के सोने के उपरान्त हमला शुरू हुआ। वह हमला सूर्योदय के पहले ही समाप्त होकर किले के ऊपर राष्ट्रकूटो का गरुडध्वज फडफडाने लगा। दुर्भद्य उस कैदाल किले की विजय से वकरस की सेना का उत्साह दुगुना हुआ और वैरियो के हृदय मे भय ने स्थान पा लिया। वाद वकरस की अदम्य सेना भयकर दावाग्नि की तरह सामने की सभी चीजो को जलाती हुई सीधा गग राजधानी तलवनपुर की ओर बढी। भरी हुई वर्षाकालीन कावेरी नदी भी गग राजधानी कौरक्षा नहीं कर सकी। अचानक हमला करने वाली, विजय मे मत्त वकरस की सेना के सम्मुख तलवनपुर सविवश शरणागत हुमा । राष्ट्रकूट के ऊपर अन्यायपूर्वक तलवार उठाने वाले नीतिमार्ग का दर्प चूर-चूर हुमा । पर हा, अल्प सेना के कारण अरक्षित राजधानी को ले लेने मात्र से वीर वकरस को समर मे अखपढ विजय नही मिल सकती थी। कोलापुर के पास ठहरी हुई गगसेना को जीते विना बकरस अपनी पूर्व विजय से प्रप्त हो कर चुपचाप बैठ नही सकते थे। पहले धान्त सेना को विश्रान्ति प्रदान कर वाद कोवलापुर की ओर प्रायण करने का विचार कर वकरस ने तलवनपुर की विजय का समाचार चक्रवर्ती को भेजा। परन्तु वह समाचार जब मान्यखेट मे पहुचा तब चक्रवर्ती विजय के आनन्द को अनुभव करने की परिस्थिति मे नही रहे। उधर नीतिमार्ग की सेना राजा रमडुबु मे नव राष्ट्रकूट सेना पर हमला कर रही थी, तब इधर मगि की कूटनीति से त्रिपुरि को देखने के ब्याज से शकरगण के साप गया हुआ राजकुमार, चेटि सेना के बल पर अपने को चक्रवर्ती घोषित कर, राष्ट्रकूट [ ४१७

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