Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 449
________________ जन्म तेरा बातो ही बीत गया, तूने कबहुं न कृष्ण कहो। पाच वरस का भोला भाला अब तो बीम भयो । सुन्दर पचीमी माया कारन देश विदेश गयो । -वीरदास आयु सब यो ही बीती जाय । बग्स अपन ऋतु मास महत, पल छिन ममय सुभाय । बन न सकत जप तप व्रत सजम, पूजन भजन उपाय ॥ मिथ्या विपय कपाय काज मे, फमो न निकमो जाय ॥ -छत्तदास यदि कबीरदास प्रभु के भजन करने मे पानन्द का अनुभव करते है तो जगतगम कवि 'भजन मम नही काज दूजो की माला जपते है। दोनो ही कवियो ने परमात्मा के भजन की अपूर्व महिमा गाई है । भजन से पापो का नाश होता है । सत समाज का समागम होता है। द्रव्य का भण्डार प्राप्त होता है। दोनो कवियो के पदो का अध्ययन कीजिये भजन मे होत मानन्द प्रानन्द । बरसै शब्द अमी के बादल, भीजे मरहम सन्त । कर अस्नान मगन होय वैठे, चढा शब्द का ग । अगर वाम जहां तत की नदिया, बहत पारा गग । तेरा साहिव है तेरे माही पारस परसे अग। कहत कबीर सुनो भाई साधो, जपले ओ३म् सोऽह ।। -कवीरदास भजन सम नहीं काज दूजो। धर्म अग अनेक या मै, एक ही सिरताज । करत जाके दुरत पातक, जुरत सत समाज । भरत पुण्य भण्डार यात, मिलत सब सुख साज ।।१।। भक्त को यह इप्ट ऐसो, ज्यो क्षुधित को नाज । कर्म ईधन को प्रगनि सम, भव जलधि को पाज ।। २ ।। इन्द्र जाकी करत महिमा, कहो तो कमी लाज । जगतराम प्रसाद याते, होत अविचल राज ॥ ३ ॥ दौलतराम ने भगवान महावीर से भवपीर हरने तथा कर्म वेडी को काटने की प्रार्थना की तो कवीरदास ने भगवान से निवेदन किया है कि उनके विना भक्त की कौन पीर हर सकता है। हमारी पौर हरो भवपीर (दौलतराम) आप विन कौन नुने प्रभु मोगे (कबीरदाग) [४१३

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