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इसी तरह यदि कबीरदास ने "साधो । मूलन बेटा जायो, गुरू परताप साधु की सगत खोज कुटुम्ब सब खायो" पद मे बालक का नाम ज्ञान रखा है तो बनारसीदास ने बालक का नाम भौदू रखकर नाम रखने वाले पडित को ही बालक द्वारा खा लेने की अच्छी कल्पना की है । इस दृष्टि से बनारसीदास की कल्पना निस्सदेह उच्च स्तर की है। दोनो पदो का अन्तिम भाग देखिएकबीरदास - ज्ञान नाम घरयो बालक का शोभा वरणि न जाइ । कहै कबीर सुनो भाई साधो, घर घर रहा समाइ ॥ बनारसीदास - नाम धरयो बालक को भोट्ट रूप वरन कछु नाही । नाम धरते पाडे खाये कहत बनारसी भाई ॥ राजस्थान की लाडली मीरा ने कृष्णभक्ति की देश अनुपम धारा बहाई । 'मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई' का श्रालाप घर घर होने लगा । साधारण जनता कृष्णभक्ति मे दीवानी हो उठी और मीरा द्वारा रचित पदो को गाकर सारे वायुमंडल को भक्तिविभोर कर दिया । इधर जैन कवि भी उस प्रवाह से अछूते नही रह सके । कविवर बनारसीदास ने "जगत मे सौ देवन को देव, जासु वरन इन्द्रादिक परसे होय मुकति स्वयमेव" का आलाप लगाया। इसी तरह एक ओर मीरा ने प्रभु से होली खेलने के लिए निम्न शब्द लिखे :
(१) होली पिया बिन लागे खारी सुनो री सखी मेरी प्यारी । (२) होरी खेलत है गिरधारी ।
तो दूसरी ओर जैन कत्रि श्रात्मा से ही खेलने को आगे बढे और उन्होने निम्न शब्दो मे अपने भावो को व्यक्त किया—
होरी खेलूंगी घर आए चिदानन्द ।
शिशर मिथ्यात गई अब, आइ काल की लब्धि बसत ।
१७वी शताब्दी मे होने वाले महाकवि तुलसीदास ने 'राम जपु राम जपु राम जपु बाबरे', 'घोर नीर निधि नाम निज लख रे' का सदेश फैलाया तो कविवर रूपचन्द ने जिनेन्द्र का नाम जपने के लिए प्रोत्साहित किया किन्तु अपने परिणामो को पवित्र करने के लिए मन से काटे को निकाल कर उनका स्मरण करने के लिए भी कहा। कविवर द्यानतराय ने "रे मन भज भज दीनदयाल, जाके नाम लेत इक खिन मे कर्ट कोटि अघ जाल" के रूप मे भगवद्भवित करने के लिए जगत् को सलाह दी ।
इस प्रकार जैन कवियो ने अध्यात्म एव भक्तिपरक पद लिख कर हिन्दी पद साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया जिसका विस्तृत अध्ययन होना आवश्यक है ।
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संयम व सदाचार
श्री दयाचन्द जैन शास्त्री उज्जैन
सभी प्राणियो की अपेक्षा मनुष्य मे बुद्धि बल अधिक होता है इसलिए उसमे अपना हिताहित विचार करने की शक्ति भी अधिक होती है। विचारशक्ति का यह देवी लाभ पाकर
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