Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 430
________________ जैनदर्शन में सर्वज्ञता की सभावनाएँ जनदर्शन मे ज्ञान को प्रात्मा का स्वरूप अथवा स्वाभाविक गुण माना गया है। और उसे स्वपर प्रकाशक वतलाया गया है। यदि आत्मा का स्वभाव नत्व (जानना) न हो तो वेद के द्वारा भी सूक्ष्मादि यो का ज्ञान नही हो सकता । भट्ट अकलङ्क ने लिखा है कि ऐसा कोई नेय नही, जो ज्ञस्वभाव प्रात्मा के द्वारा जाना न जाय । किसी विषय मे अनता का होना नानावरण तथा मोहा दिदोपो का कार्य है । जव ज्ञान के प्रतिवन्धक ज्ञानावरण तथा मोहा दिदोषो का भय हो जाता है तो विना रुकावट के एक साथ समस्त यो का ज्ञान हुए विना नहीं रह सकता। इसी को सर्वज्ञता कहा गया है। जैन मनीपियो ने प्रारम्भ से त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष ज्ञान के अर्थ मे इस सर्वजता को पर्यवसित माना है। आगम ग्रयो व तर्क प्रयो मे हमें सर्वत्र सर्वज्ञता का प्रतिपादन एव उपपादन मिलता है । पट्खण्डागम सूत्रोमे कहा गया है कि 'केवली भगवान समस्त लोको, समस्त जीवो और अन्य समस्त पदार्थों को सर्वथा एक साथ जानते व देखते है।' आचाराग सूत्रो मे भी यही कथन किया गया है। महान् चिन्तक और लेखक कुन्दकुन्द ने भी लिखा है कि प्रावरणो के प्रभाव से उद्भूत पेवल ज्ञान वर्तमान, भूत, भविष्यत् सूक्ष्म, व्यवहित प्रादि सब तरह के शेयो को पूर्णरूप मे युगपत् जानता है। जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती सम्पूर्ण पदार्थों को नहीं जानता वह अनन्त पर्यायो वाले एक द्रव्य को भी पूर्णतया नहीं १. 'उपयोगो लक्षणम् ।' -तत्वार्थ सू० २-८ २. 'न खल ज्ञस्वभावस्य कश्चिद्गोचरोऽस्ति यन्न क्रमेत, तत्स्वभावान्तर प्रतिपेधात् ।' -अष्ट ग० अष्ट स०१० ४६ ३. 'णाण सपरपवासय । -कुन्दकुन्द, प्रवचन सा० १ ४. 'सय भयव उप्पण्णणाणदरिसी......." सव्वलोए सव्वलोए वे सब्वभावे सव्वं सम जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति ।' -पट्ख० पयदि० सू०७८ ५. 'से भगव अरिह जिणो केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी .... । सन्चलोए सव्वजीवाण सव्वभावाड जाणमाणे पासमाणे एव च ण विहरड।' -आचाराग सू० २-३ ६ ज तक्कालियमिदर जाणदि जुगव समत दो सम्ध । प्रत्य विचित्तविसम त णाण खाइय भणिय ॥ जो ण विजाणदिजुगव अत्ये ते कालिगे तिहुवणत्ये । जादु तस्सण सक्कं सपज दवमेक वा ।। दम्बमणतप्पजयमेकमणं ताणि दव्व जाणादि । ण विजाणदि जदि जुगवं कय सो दन्वाणि जाणादि । -प्रव० सा०१-४७,४०,४६ ३६४ .

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