Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 432
________________ जयो का ज्ञान न हो ।' उनका वह प्रतिपादन निम्न प्रकार है दोपावरणयोहानिनिश्शेपाऽस्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो वहिरन्तर्मलक्षय || स त्वमेवासि निर्दोपो युक्तिशास्त्रविरोधिवाक् । अविरोधो मदिष्ट ते प्रसिद्धन ने वाध्यते ॥ - प्राप्तमी० का० ५, ६ समन्तभद्र के उत्तरवर्ती सूक्ष्म चिन्तक अकलकदेव ने मर्वज्ञताकी सभावना में जो महत्व] पूर्ण युक्तिया दी हैं उनका भी यहा उल्लेख कर देना आवश्यक है । अकलक की पहली युक्ति यह है कि आत्मा मे समस्त पदार्थों को जानने की सामर्थ्य है । इस सामर्थ्य के होने से ही कोई पुरुपविशेष वेद के द्वारा भी सूक्ष्मादि ज्ञेयो को जानने में समर्थ हो सकता है, अन्यथा नहीं। हा, यह अवश्य है कि ससारी-अवस्था मे ज्ञानावरण से प्रावृत होने के कारण ज्ञान सब जेयो को नही जान पाता। जिस तरह हम लोगो का ज्ञान सव जेयो को नही जानता, कुछ सीमितो को ही जान पाता है। पर जव ज्ञान के प्रतिवन्धक कर्मो (आवरणो) का पूर्ण क्षय हो जाता है तो उस विशिष्ट इन्द्रियानपेक्ष और आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान को, जो स्वय अप्राप्यकारी भी है, समस्त नेयो को जानने मे क्या बाधा है। उनकी दूसरी युक्ति यह है कि यदि पुरुषो को धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय शेयो का ज्ञान न १ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि समन्तभद्र ने प्राप्त के आवश्यक ही नही, अनिवार्य तीन गुणो (वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशकता) मे सर्वज्ञता को प्राप्त की अनिवार्य विशेषता बतलाया है उसके विना वे उसमे प्राप्त को असम्भव बतलाते है : आप्तेनोच्छिन्न दोपेण सर्वजेनागमेशिना। भवितव्य नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ -रत्न क. श्लोक ५ २. कथाञ्चेत् स्वप्रदेगेपु स्यात्कर्म-पटलाच्छता । ससारिणा तु जीवना यत्र ते चक्षुरादय ॥ साक्षात्कतुं विरोध क सर्वथावरणात्पये । सत्यमर्थ तथा सर्व यथाऽभूद्वा भविष्यति ।। सर्वार्थग्रहण सामर्थ्याच्चैतन्यप्रतिवन्धिनाम् । कर्मणा विगमे कस्मात् सर्वानर्थान् न पश्यति ।। महादि गतयः सर्वा सुखदुखादि हेतव । येन साक्षात्कृतास्तेन किन्न साक्षात्कृत जगत् ।। जस्यावरण विच्छेदे ज्ञेय किम वशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मान् सर्वार्थावलोकनम् ।। -न्यायविनिश्चय का० ३६१, ३६२, ४१०, ४१४, ४६५

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