Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 434
________________ जानने योग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। अप्राप्यकारी ज्ञान से सकलार्थ-विषयक ज्ञान होना अवश्यम्भावी है । इद्रिया और मन सकलार्थ परिज्ञान मे साधक न होकर वाधक है। वे जहाँ नही है और आवरणो का पूर्णत प्रभाव है वहा त्रैकालिक और त्रिलोकवर्ती यावत् यो का साक्षात् ज्ञान होने मे कोई वाघा नहीं है। आ. वीरमेन और प्रा० विद्यानन्द ने भी इसी भागय का एक महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत करके उसके द्वारा जम्वभाव प्रात्मा मे सर्वजता की सम्भावना की है। वह श्लोक यह है : जो ये कथमन स्यादसति प्रतिवन्धने । दाह येऽग्निदीहको न स्यादसति प्रतिवन्धने ।। -जयधवला, पृ० ६६, अष्ट म० पृ० ५० अग्नि में दाहकता हो और दाह्य-ईंधन सामने हो तथा वीच मे कोई रुकावट न हो तो अग्नि अपने दाह य को क्यो नही जलावेगी ? ठीक उसी तरह आत्मा ज्ञ (जाता) हो, और नेय सामने हो तथा उनके बीच में कोई रुकावट न रहे तो ज्ञाता उन ज्ञेयो को क्यों नहीं जानेगा? आवरणो के अभाव मे ज्ञस्वभाव प्रात्मा के लिए आसन्नता और दूरता ये दोनो भी निरर्थक हो जाती है। अन्त मे यह कहते हुए अपना निबन्ध समाप्त करते है कि जनदर्शन में प्रत्येक आत्मा मैं आवरणो और दोपो के अभाव मे सर्वज्ञता का होना अनिवार्य माना गया है । वेदान्तदर्शन मे मान्य आत्मा की सर्वज्ञता से जैनदर्शन की सर्वज्ञता में सिर्फ इतना ही अन्तर है कि जनदर्शन मे सर्वजता को आवत करने वाले प्रावरण और दोप मिथ्या नहीं है, जबकि वेदान्तदर्शन में उसी को मिथ्या कहा गया है । इसके अलावा जैनदर्शन की सर्वज्ञता जहा सादि अनन्त है और प्रत्येक मुक्त आत्मा में वह पृथक्-पृथक् विद्यमान रहती है, अतएव अनन्त सर्वज्ञ है वहाँ वेदान्त मे मुक्त आत्माएं अपने पृथक् अस्तित्व को न रखकर एक अद्वितीय सनातन ब्रह्म मे विलीन हो जाते है और उनकी सर्वजता अन्त करण-सम्बन्ध तक रहती है, वाद को वह नष्ट हो जाती है या ब्रह्म मे ही उसका समावेश हो जाता है। श्री सम्पूर्णानन्दजी ने जैनो की सर्वजता का उल्लेख करते हुए उसे प्रात्मा का स्वभाव न होने की बात कही है । उमके सम्बन्ध मे इतना ही निवेदन कर देना पर्याप्त होगा कि जैन मान्यतानुसार सर्वज्ञता आत्मा का स्वभाव है और महत् (जीवन्मुक्न) अवस्था मे पूर्णतया प्रकट हो जाती है तथा वह मुक्तावस्था में भी अनन्तकाल तक विद्यमान रहती है । "सत् का विनाश नहीं और असत् का उत्पाद नहीं" इस सिद्धात के अनुसार आत्मा का कभी भी नाश न होने के कारण उसकी स्वभावभूत सर्वज्ञता का भी विनाश नहीं होता । अतएव अर्हत् अवस्था मे प्राप्त अनन्त चतुष्टय (अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य) के अन्तर्गत अनन्तनान द्वारा इस सर्वज्ञता को जैनदर्शन मे शाश्वत (शक्ति की अपेक्षा अनादि अनन्त और व्यक्ति की अपेक्षा सादि अनन्त) स्वीकार किया गया है । १. ६ अक्तूबर १९६४ को राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर मे आयोजित अ० भा० दर्शन परिपद् का उद्घाटन करते हुए दिया गया भापण । ३६८]

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