Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 412
________________ सोना, चादी, लोहा, ताम्रादि की अनेक चीजे बनती है। उनमे कगन, अगूठी, थाली, लोटा, आदि बनने की क्षमता है। इनमे नई अवस्था आई, उत्पाद हुआ । पूर्वावस्था का रूप बन गया अतः व्यय हुआ और धातु अचेतन की अचेतन, जड की जड रही। पर ये चेतन नही हो सकती । इसी प्रकार आत्मा चेतन अनेक रूप धारण कर सकता है- जन्म-मरण कर सकता है पर - अचेत नही हो सकता। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य अपने रूप परिणमन करता है । 1 " जैनदर्शन" मानता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है । वह अपने रूपो का परिणमनो का उत्तरदायी है । कोई द्रव्य किसी का कुछ बिगाड नही सकता । अन्यथा - कर्ता-धर्तापन की भावना यहाँ भी बनी रहेगी जो सच्चे विश्वास को डगमगा देगी। जब सच्चा विश्वास - सम्यग् दर्शन न होगा तो सच्चा ज्ञान और सच्चा चरित्र कहाँ रहेगा। इन तीनो बिना मुक्ति भी न होगी । अत जैन दर्शन ने प्रत्येक द्रव्य को अपने परिणमन मे स्वतंत्र माना है । इसी विश्वास मे मात्मा की विजय है "अहमिन्द्रो न पराजिग्ये " - ऋग्वेद । आत्मा को अनतशक्ति का आभास भी यही होता है । - सयोग से अभिन्न रहा यह ससार सदा से आत्मा और अनात्मा, चेतन या अचेतन के है । इन दोनो के सयोग का नाम ही ससार है। इस ससार में हमे प्रचेतन जड- द्रव्यों का सहारा तो लेना ही पडता है। इसमे जो भी सुख-दुख मिलता है उसमें अचेतन का भी योग रहता है । यह योग तब तक है जब तक ससार है-सासारिक बुद्धि हैं। इसे हम अनुभव भी करते है । इसीलिए "जैनदर्शन" कहता है कि हमारे क्रियाकलापो के अनुरूप " कार्याणवर्गणा" ( जड-द्रव्य कर्मसमूह ) हमारी आत्मा से सबद्ध हो जाती है तथा तदनुरूपेण ( प्रकृतिबंध, प्रदेशबध, स्थिति और अनुभागबध द्वारा) फलदान करती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जड पदार्थ "कार्माण वर्गणा" मे श्रात्म चेतन के क्रियाकलापो या विचारो आदि के कारण फल देने की शक्ति प्रकट हो जाती है। कौन कर्म जड कब उदय मे आकर फल देंगे यह भी निश्चित हो जाता है । " कार्मारण वर्गणा" ओ से आकृष्ट होकर आये, जडकर्मपरमाणु आत्मा से सम्बद्ध हो जाते है । वे ही समयानुसार फल देते है । "एकीभावस्तोत्र" मे प्राचार्य श्री वादिराज ने कहा है- एकीभाव गत इव मया य स्वय कर्मबन्धो, घोर दुख भवभवगतो दुर्निवार. करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे । भक्तिरुन्मुक्तये चेत्, जेतु शक्यो भवति न तया कोऽपरस्ताप हेतु ॥ "हे भगवान् जिनेन्द्र सूर्य । अनेक भवो मे सचित दुर्निवार तथा मेरे साथ स्वय एकी भाव को प्राप्त कर्मबन्ध घोर दु ख देता है । उस कर्मबध से (जो अनादि कालीन है ) भापकी भक्ति छुटकारा दिलाती है तो फिर वह भक्ति दुख देने वाले अन्य किससे छुटकारा न दिलावेगी ।" पूर्वोक्त भक्तिपद्य में श्रात्मा को अनादिकाल से कमवद्ध बताया है। साथ मे जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति का माहात्म्य भी बताया है। जैनदर्शन - कर्म से आत्मा का सवध अनादि ३७६ ]

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