Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 416
________________ सच्चा पुरुषार्थ है । मन और कषायों के संपर्क से उत्पन्न चौदह अवस्थाओं - गुगस्थानों को पार कर आत्मा युक्त बन सकता है । श्रत. प्रत्येक श्रात्मा को क्रमबंब से नुक्त होने के लिए सच्चा दर्शन, सच्चा ज्ञान और सच्चा चरित्र पाने की कोशिश करना चाहिए। क्योंकि इन तीनों की प्राप्ति से ही मुक्ति मिलेगी - अनंत आनंद की प्राप्ति होगी । सच्चा दर्शन - विश्वास - "जीवाजीवाश्रववंच संवर निर्जरा मोक्षास्तत्वम्” –'जीब, अंजीव, श्राश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोल इन तत्वों के सच्चे ज्ञान पर निर्भर है । जीव श्रात्मा है । आत्मा द्रव्य है । वह अजर-अमर भी हैं। आत्मा के ज्ञान, दर्शन, मुख और यक्ति गुण हैं । प्रत्येक के माय अनंन जोड़ने पर ये अनंत चतुष्टय बन जाते हैं । अजीव द्रव्य मैं आत्मा के गुण नहीं श्रतं. जीव से विपरीत अजीब कहा गया है। जीव द्रव्य पांच है-धर्म, धर्म, आकाश, काल और पुद्गल - जड़ । धर्म द्रव्य एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में सहायक होता है । धर्म द्रव्य ठहरने में सहायक होता है । श्राकाश जगह देता है रहने के लिए । प्रकाश के दो भेद हैं- लोकाकार तथा अलोकाकाम । लोकाकाम में छह व्यें रहती हैं किन्तु अलोककाय मे केवल आकाण ही है शेष द्रव्यें नहीं 1 कान समयं बताता और पुछ्न जड़ है इसमें कठोरता, कोमलता, रुक्षता आदि गुरण होते हैं । 1 गुणस्थानों के सहारे ग्राठों कर्मों में से मोहनीय कर्म के साथ-साथ ज्ञानवरण, वनाधरण और अतराय कर्मों का क्षय कर संसारी आत्मा अरहंत पत्र पाता है। इस अवस्था में वह महारीर रहता है और संसार के प्राणियों के कल्याणार्थ सदुपदेश देता है । यह सदुपदेव दिव्यध्वनि कहलाती है । अतः पांच परमेष्ठियों में प्रथम स्थान अरहंत को दिया । छेप वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्मों को नष्ट कर अरहंत मिद्ध हो जाते हैं। सिद्ध शाकाध के दूसरे भेट लोकाकाश में जो विराजते हैं 1 ये सिद्ध कर्मबन्धनों से मुक्त हो पुनः संसार में जन्म नहीं लेते। शेप परनेकी आचार्य, उपाध्याय और सर्वसा है। इस प्रकार जैनधर्म-दर्शन में कर्मसिद्धान्त मुख्य सिद्धान्त है । कर्मसिद्धान्त का विवेचन स्याद्वाद के सहारे होता है । स्याद्वाद - श्रनेकान्तवाद ही वस्तुस्वरूप का सच्चा एवं पूर्ण विवेचन करता है । कर्मभूमि मे कर्मसिद्धांत कर्म को गौरव देना है । कर्मसिद्धांत संसार के प्रत्येक प्राणी को कर्मठ बनाता है। उसके जीवन को आशा की जगमगाती मुनहली किरणों से श्रानांकित करता है । क्योकि कहा है -- निराशाया. समं पापं मानवस्य न विद्यते । समुत्मार्थ समून्द्र तामाणावादपरो नव ॥ निर्भर है ।" 250] "निराधा के समान पाप नही है । धतः मानव को अपने जीवन को उन्नत बनाने की भावना वाला होना चाहिए ।" मानवस्योन्नति व साफल्यं जीवनस्य च । चारिनाय्यं नया सृष्टेराशावादे प्रतिष्ठितम् ॥ "मनुष्य की सम्पूर्ण उन्नति, जीवन की सफलता एवं सृष्टि की सायंन्द्रा द्यावाट पर समूल नष्ट कर प्राशावादी

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