Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 373
________________ प्रयत्न समुद्र के किनारे बैठकर एक सीक लेकर उसके ऊपर एक-एक वू द चढ़ा-चढ़ाकर समुद्र को खाली करने वाले को करना पडता है और धीरज रखना पड़ता है। उससे भी विशेष प्रयत्न करने वाले को करना पड़ता है और धीरज रखना पड़ता है। उससे भी विशेष प्रयत्न करने की श्रावश्यकता है । इस मोक्ष का सम्पूर्ण वर्णन असम्भव है। तीर्थ कर को मोक्ष के पहले की विभूतिया सहज ही प्राप्त होती है । इस देह मे मुक्त पुरुष को रोगादि कभी भी नहीं होते । निर्विकारी शरीर में रोग नही होता। राग के बिना रोग नहीं होता । जहा विकार है वहा राग रहता ही है, और जहां राग है वहा मोक्ष भी सम्भव नही । मुक्त पुरुष के योग्य वीतरागता या तीर्थंकर की विभूतिया श्रीमद् को प्राप्त नही हुई थी । परन्तु सामान्य मनुष्य की अपेक्षा श्रीमद् की वीतरागता और विभूतियां बहुत अधिक थी, इसलिये हम उन्हें लौकिक भाषा में वीतराग और विभूतिमान कहते है । परन्तु मुक्त पुरुष के लिए मानी हुई वीतरागता और तीर्थ कर की विभूतियो को श्रीमद् न पहुँच सके थे, यह मेरा दृढमत है। यह कुछ मे एक महान और पूज्य व्यक्ति के दोष बताने के लिए नही लिखता । परन्तु उन्हे और सत्य को न्याय देने के लिए लिखता हू । यदि हम ससारी जीव हैं तो श्रीमद् प्रसारी थे । हमे यदि अनेक योनियो में भटकना पडेगा तो श्रीमद् का शायद एक ही जन्म बस होगा । हम शायद मोक्ष से दूर भागते होगे तो श्रीमद् वायुवेग से मोक्ष की और से जा रहे थे । यह कुछ थोड़ा पुरुषार्थं नही । यह होने पर भी मुझे कहना होगा कि श्रीमद् ने जिस अपूर्व पद का स्वय सुन्दर वर्णन किया है, उसे वे प्राप्त न कर सके थे। उन्होंने ही स्वयं कहा है कि उनके प्रवास में उन्हें सहारा का मरुस्थल बीच में भा गया और उसका पार करना बाकी रह गया । परन्तु श्रीमद् रायचन्द असाधारण व्यक्ति थे । उनके लेख उनके अनुभव के 'बिन्दु के समान है । उनके पढने वाले, विचारने वाले और तदनुसार आचरण करने वालो को मोक्ष सुलभ होगा, उनकी कथायें मन्द पडेंगी, और वे देह का मोह छोडकर भात्मार्थी बनेंगे । 1 इसके ऊपर से पाठक देखेंगे कि श्रीमद् के लेख अधिकारी के लिए ही योग्य है । सब पाठक तो उसमे रस नही ले सकते । टीकाकार को उसकी टीका का कारण मिलेगा । परन्तु श्रद्धावान तो उसमे से रस ही लूटेगा । उनके लेखो मे सत् नितर रहा है, यह मुझे हमेशा भास हुआ है। उन्होने अपना ज्ञान बताने के लिए एक भी अक्षर नहीं लिखा। लेखक का अभिप्राय पाठको को अपने आत्मानन्द मे सहयोगी बनाने का था। जिसे आत्मक्लेश दूर करना है, जो अपना कर्तव्य जानने के लिए उत्सुक है, उसे श्रीमद् के लेखो मे से बहुत कुछ मिलेगा, ऐसा मुझे विश्वास है, फिर भले ही कोई हिन्दू धर्म का अनुयायी हो या अन्य किसी दूसरे धर्म का । न्याय और दलवन्दी, ये दो विरोधी दिशाएं है, एक व्यक्ति एक साथ दो दिशाओ मे चलना चाहे, इससे बड़ी मूल और क्या हो सकती है ! [ ३३९

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