Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 409
________________ गवर्नमेट कालिज, जयपुर का स्वय कहना है कि, "गीताजी जैन धर्म के सिद्धान्तो मे प्रमाणित अन्य है ।" हिन्दुओ का दूसरा प्रसिद्ध और प्रामाणिक ग्रन्थ भागवत पुराण कहता है कि जैनियों के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋपभदेव इक्ष्वाकु वशी ये । जो नाभिराय मनुजी के पुत्र और प्रयम मन्त्राट थे, जिनका वर्णन ऋग्वेद तक मे आता है। अनेक विद्वानो का मत है कि नाभिगय मनुजी ने जो उपदेश अपने पुत्र आदि महापुरुप श्री ऋपभदेव को इस युग के प्रारम्भ में दिया और फिर श्री ऋषभदेवजी ने दिया, फिर दूसरे तीर्थकर श्री मजतजी ने और फिर इसी प्रकार २२वं तीर्थकर श्री नेमिनाथजी ने अपने ममयकालीन श्री कृष्णजी को दिया वही कृष्णजी ने महाभारत के समय भी अर्जुन को दिया वही उपदेश गीता के नाम से पुकारा जाता है और यही कारण है कि गीता मे अनेक जैन सिद्धान्त भरे हुए है। आज के विद्वान श्री नेमिनाथजी को श्री कृष्णजी समान ऐतिहासिक पुरुप स्वीकार करते है। डा. श्री राधाकृष्णजी के अनुसार श्री नेमिनायजी का वर्णन वेदो में भी मिलता - 16 श्री कृष्णजी के पिता श्री वमुदेवजी और श्री नेमिनाथजी के पिता श्री समुद्रविजयजी सगे भाई थे 1. श्रीकृष्णजी अनेक वार अपने परिवार माहित भगवान नेमिनायजी के शमोशण मे उनका उपदेश सुनने के लिए गए। श्री कृष्णजी के पुत्र श्री प्रद्युम्नकुमारजी तो तीर्थकर महाराज के उपदेश से इतने प्रभावित हुए कि सब गजनुप त्यागकर भरी जवानी मे जन साधु उनके गमागणं मे ही हो गये थे। गीता पर भगवान नेमिनायजी का प्रभाव होना कुदरती वात है। स्वय कृष्ण जी ने भी गीता अध्याय ४ के लोक १-२ मे इस बात को इस प्रकार स्वीकार किया . इम विवस्वते योग प्रोक्तवानह मव्ययम् । विवास्वान्मनचे प्राह मनुरिस्वाकवेऽनवीन् ।।।। एव परम्पराप्राप्तमिम राजर्षयोविदुः । स कालेनेह महता योगो मष्ट पर तप ॥२॥ (अध्याय ४) अर्थात् (गीता प्रेस गोरखपुर के अनुसार) इस अविनागी योग को क्ल्प के प्रादि (स युग के प्रारम्भ) मे सूर्य के प्रति कहा गया था और मूर्य ने बाने पुत्र मनु (नामीराय मनु) के प्रति कहा और मनुजी ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु (ऋषभदेव) के प्रति कहा । इस प्रकार परपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजपियो ने जाना । यह पुरातन योग अब मैं तुम्हारे (अर्जुन) के लिए कहता हूँ। ५. महिमा, जयपुर (१६ मई १९५६) पृ०२ ६ विस्तार के लिए हमारा यर्धमान महावीर, पृ० ४० ७ Glimpses of Jainism, page 3 ८. विस्तार के लिए हमारा वर्षमान महावीर, पृ० ४२६ ĉ Indiau Philosophy, Vol. II, p 287. १. Prof. Dr. H. S Bhattacharya Lord .Iri-ita Yema, Pic 3. ११-१२ हरिवंश पुराण पृ० ३८५

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