Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 381
________________ हो जाये, ऐसा होना मुझे प्रमाणभूत नहीं मालूम होता। इसी तरह के प्रवाह मे उसकी स्थिति रहती है। कोई भाव रूपान्तरित होकर क्षीण हो जाता है, तो कोई वर्षमान होता है, वह एक क्षेत्र मे वढता है, तो दूसरे क्षेत्र मे घट जाता है, इत्यादि रूप से इस सृष्टि की स्थिति है। इसके ऊपर से और बहुत ही गहरे विचार मे उतरने के पश्चात् ऐसा कहना सम्भव है कि यह सृष्टि सर्वथा नाश हो जाय, अथवा इसकी प्रलय हो जाय, यह कहना सम्भव नहीं । सृष्टि का अर्थ एक इसी पृथ्वी को नही समझना चाहिए। प्रश्न (२२)-इस अनीति में से सुनीति उद्भूत होगी, क्या यह ठीक है ? उत्तर:-इस प्रश्न का उत्तर सुनकर जो जीव अनीति की इच्छा करता है, उसके लिए इस उत्तर को उपयोगी होने देना योग्य नही। नीति-अनीति सर्वभाव अनादि हैं। फिर भी हम-तुम अनीति का त्याग करके यदि नीति को स्वीकार करे, तो इसे स्वीकार किया जा सकता है, और यही आत्मा का कर्तव्य है। और सब जीवो की अपेक्षा अनीति दूर करके नीति का स्थापन किया जाय, यह वचन नहीं कहा जा सकता; क्योकि एकान्त से उस ' कार की स्थिति का हो सकना सम्भव नही। प्रश्न (२३)-क्या दुनिया की प्रलय होती है ? उत्तर:-प्रलय का अर्थ यदि सर्वथा नाश होना किया जाय तो यह वात ठीक नहीं। क्योकि पदार्थ का सर्वथा नाश हो जाना सम्भव नहीं है। यदि प्रलय का अर्थ सब पदार्थों का ईश्वर आदि मे लीन होना किया जाय तो किसी भभिप्राय से यह गत स्वीकृत हो सकती है, परन्तु मुझे यह सम्भव नही लगती । क्योकि सव पदार्थ सव जीव इस प्रकार समपरिणाम को किस तरह प्राप्त कर सकते है, जिससे इस प्रकार का सयोग बने ? और यदि उस प्रकार के परिणाम का प्रसग आये भी तो फिर विपमता नहीं हो सकती। यदि अव्यक्त रूप से जीवन में विपमता और व्यक्त रूप से समता के होने को प्रलय स्वीकार करे तो भी देह मादि सम्बन्ध के बिना विषमता किस आधार से रह सकती है यदि देह प्रावि का सम्बन्ध माने तो सबको एकेन्द्रियपना मानने का प्रसग भाये, और वसा मानने से तो विना कारण ही दूसरी गतियो का निषेध मानना चाहिए-अर्थात् कची गति के जीव को यदि उस प्रकार के परिणाम का प्रसग दूर होने आया हो तो उसके प्राप्त होने का प्रसग उपस्थित हो, इत्यादि बहुत से विचार उठते है। अतएव सर्व जीवो की अपेक्षा प्रलय होना । सम्भव नहीं है। प्रश्न (२४) अनपढ को भक्ति करने से मोक्ष मिलती है, क्या यह सच है ? उत्तर.-भक्ति ज्ञान का हेतु है। ज्ञान भोक्ष का हेतु है। जिसे अक्षरज्ञान न हो यदि उसे अनपढ कहा हो तो उसे भक्ति प्राप्त होना असम्भव है, यह कोई बात नहीं है। प्रत्येक जीव ज्ञानस्वभाव से युक्त है। भक्ति के बल से ज्ञान निर्मल होता है। सम्पूर्ण ज्ञान की प्रावृत्ति [३४७

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