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क्षयोपशम ज्ञान
क्षयोपशम ज्ञान है, निर्णय करने को कि मैं पूर्ण ज्ञान स्वरूप यह अधूरा ज्ञान निर्णय न करके, तर्क-वितर्क में ही है उलझा अधूरे ज्ञान में प्रश्न अनेक और समाधान की नहीं है क्षमता ऐसा आकर खड़ा है बीच में, करता अभिमान और अकड़ता.
इसीलिये गुरु ने समझाया है दृष्टि का विषय और बताया बड़े विस्तार से, यदि आ जाये श्रद्धा की मुझ में गहनता मध्यस्थता से, छोड़ इस क्षयोपशम ज्ञान की सामर्थ्यता मैं झुक जाऊं, नम जाऊं, स्वीकार लूं, मुझ स्वरूप की सत्ता
सारे प्रश्न, कि कैसे हूं मैं पूरा और इतना अधूरा, हों नाश कैसे मैं संज्ञी पंचेंद्रियों सहित, अतीन्द्रिय-निर्विकल्प-शांत अनंत नयों से परिपूर्ण, न आऊं समझ में नयों से, नयातीत न आऊं न आऊं इस क्षयोपशम ज्ञान में, रहूं पूर्ण स्वयं सत्ता
जीव न उलझ इस क्षयोपशम ज्ञान में, उठ उपर, देख तो तू है, एक पूर्ण वीतराग, सम्पूर्ण, अनुपम, अलौकिक, सत्ता इसी द्रष्टि में एकाग्र, जो आनंद- शांतिमय हो रहा है वेदन तभी जो भी है तेरा ज्ञान, वह नाम सम्यक्ज्ञान है पाता.