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दौड़ के मिल ले
शुभाशुभ भावों का आना जाना तो इस जीव को सदैव से रहा है जीव इन्हीं भावों में पूरी तरह से उलझा फंसा ही तो रहा है इन्हीं भावों की गहराइयों में, इन्ही भावों के पीछे तले में जीव स्वयं पारिणामिक भावे नित्य निरंजन शाश्वत भी तो है.
कोई इन दीवारों के घर आया तो जीव दौड़े उन्हें मिलने यही जीव क्यों न स्वयं के ही क्षेत्र में, ऐसी घड़ी भी लाये दौड़ के मिल ले स्वयं को ही स्वयं के क्षेत्र में, ऐसी घड़ी भी लाये इस जीव का इस भव में यही तो प्रथम में प्रथम कर्तव्य भी है.
भूख, प्यास, शरीर, और शरीर के सम्बन्धों के पीछे दौडा यह जीव क्यों स्वयं को मानने पहचानने से जैसे स्वयं ही हर बार इंकार ही कर रहा हो. नित्य निरंजन शाश्वत भी अंतर से कह रहा हो मैं भी हूं, मुझसे भी मिल, मैं भी तेरा ही हूं.
अब तो मैं, मुझ में ये दीवारें, यह मकान, ये शरीर क्या ? ये सभी भी हैं, इनका स्थान भी है, मुझे इंकार भी नहीं पर मैं इन सबसे निराला, अलौकिक इस लोक से परे ही हूं मैं मुझ में ही अनुपम अपूर्व ऐसा मुझ से ही आ दौड़ मिला हूं.
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