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मैं जीव का यदि कोई काम, कर्तव्य, करने का है, तो बस यही एक ही तो मैं ज्ञानानंद कर सकता हूं भोग सकता हूं मैं तो मुझ त्रिकाल स्वरूप में ही, सदैव ही मग्न, आनंद से भरपूर, सुखशांतिमय जीवन ही जीता हूं, जी सकता हूं.
मेरा सच्चा जीवन ही मेरा जीवन है, और मेरे ही वीतराग पंच परमेष्ठी ही मेरे पूज्य, मेरा जैन दर्शन ही पूज्य है मैं, मेरे पूज्य, और मेरा पूज्य दर्शन सभी तो अनादि अनंत इस अनादि अनंत विश्व में ही हैं, यही मेरा पूर्ण सत भी है.
मेरा सार्थक पुरुषार्थ तो मुझे ही, मेरे ही दर्शन को, साध्य को, पूज्य को ही जानता, करता है, और सब तो हमेशा ही निरर्थक दुखमय ही है, मेरे जीवन की तो, अनपहचान, जाने मृत्यु ही है मैं जैन हूं, मेरा दर्शन भी जैन है, और मेरा चारित्र वीतराग ही है.
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