Book Title: Surakshit Khatra
Author(s): Usha Maru
Publisher: Hansraj C Maru

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Page 211
________________ मेरा ज्ञान तो जान सके ऐसे अनंत समुद्रों को, देखो तो इस ज्ञान की भी विविधता, एवं विशालता, मेरा ज्ञान भी है गहरा, अखंड, अचल, अडोल, स्वयं है परिणमता ज्ञान भी तो अनंत ज्ञेयाकारों में परिणम सकता है एवं एकरूप ज्ञायक इस अनंता अनंत को जान सकता है. धन्य है यह प्रतीति, धन्य है यह ज्ञायक का ज्ञान अपरिणामी ही परिणमता, अखंड, अडोल ही सदा है बहता अलौकिक ही इस लोकाकाश को यथार्थ रूप में जानता न तो इसका कोई आदि, और न ही कोई अंत, अविनाशी समुद्र में लहरें तो आती जाती हैं प्रवाह तो है सदैव. * * * 210

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