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जानूं तो जानूं स्वयं को
मैं कई चीजें सीखती हूं, पढ़ती हूं, अनुभव भी करती हूं समय के निकलते कैसे तो भूल भी जाते हैं जैसे कभी सुना ही नहीं, देखा ही नहीं, फिर कभी, कुछ याद भी आ जाता है, ऐसा सब कैसे, क्यों, इसी तरह होता है?
यह सब तो कर्मों का उदय, उसीसे जो संयोग मिलते हैं हम ऐसा मान लेते हैं, यह देखा, यह सीखे, यह जाना वास्तव में तो उस समय वही होना था, हुआ, और मैंने जाना, परन्तु यह तो सारी बाहर की दुनिया है ऐसा जाना.
इसीलिये मुझे तो अंतर में, मेरे स्वयं को, आत्मा को ही सिर्फ देखना है, दर्शन करना है, और मेरे स्वयं को ही अनंत गुणों, शक्तियों से भरपूर, एक को ही जानना है अतीन्द्रिय, अभेद, अखंड, आनंद का ही ज्ञान और अनुभव है.
फिर यह अनुभव सहित ज्ञान कभी भी न भूला जायेगा. इन्द्रियों से सीखा-जाना इस शरीर के साथ नष्ट हो जायेगा मन-बुद्धि से सीखा, संकल्प विकल्पों से सीखा भी भूल ही जायेंगे एक अतीन्द्रिय स्वयं से स्वयं में जाना मेरे साथ आयेगा.
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