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[ १७ ] का प्रसंगवश उल्लेख मात्र है जिनकी इज्जत बचाने के लिये दिल्ली में वीर दुर्गादास राठौड़ ने उन्हें तलवार के घाट उतरवा कर यमुना में बहा दी थीं।
कवि ने अपनी काव्यगत परम्परा के अनुसार सम्पूर्ण ग्रंथ में वीर रस तथा .इसके मित्र वीभत्स, भयानक तथा रौद्र का अच्छा चित्रण किया है । वीर रस के अन्तर्गत युद्धवीर, दानवीर, दयावीर, धर्मवीर तथा प्रणवीर सभी का निर्वाह हुआ है। वीर रस का निम्न उदाहरण देखिए
बीड़ा ले बोलियो, कमध घात मंछां कर । उछब करौ असपती, सौच मति करौ दिलेसुर ।
मारि सीस मोकळं, काय पकड़े पोहचाऊं। अहमदाबाद हूंता असुर, एक दिवस मझि ऊथ। विण पत्रांरूख जिम सिर विलंद.करे दिलीदिस में
सू.प्र. भाग २, पृ. २४७ यत्र-तत्र प्रसंगवश शृंगार, शान्त तथा करुण रस का भी वर्णन मिलता है । साहित्यिक दृष्टि से कवि का ध्यान रसों की ओर न जा कर ग्रंथ में ऐतिहासिकता को ध्यान में रखते हुए वर्णनात्मक इतिवृत्त लिखने की ओर ही रहा है। अत: सभी रस पूर्ण रूप से परिपाक नहीं हुए हैं। शृंगार रस का निम्न उदाहरण देखिये
सोळह मझि सिणगार, सोळह बीस प्राभरण सुंदरि । वाजंत्र सझि विसतार, गांन संगीत करण मिळ गाइण । मुगघा वेस प्रमाण, लखि अति रूप उर-वसी लज्यत । पय घूघर बंध पाणं, सझिया नमसकार सारदा । ताल मृदंग तंबूर सुर वीणा, वीणा धरि सुंदरि । हरखत नपत हजूर, सझे सलाम प्रलाप कीघ सुर ॥
सू.प्र. भाग २, पृ. १५०
अलंकार कवि ने जान-बूझ कर अलंकारों को लादने की चेष्टा नहीं की है, किन्तु स्वाभाविक रूप से अलंकारों का प्रयोग होता रहा है। अतः ग्रंथ में अलंकारों का अभाव भी नहीं है। कवि की वंश-परम्परा के अनुसार समूचे ग्रंथ में 'वयण सगाई का भली भाँति निर्वाह हुया है। इसी प्रकार अनुप्रास की झलक भी प्राय: मिल ही जाती है। वीप्सा भी यत्र-तत्र मिल जाता है। अर्थालंकारों के अन्तर्गत-उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का प्रयोग ग्रन्थ में होता रहा है। अतः स्पष्ट है कि ऐतिहासिक ग्रंथ होते हुए भी कवि द्वारा अलंकारों का प्रयोग
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