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स्वाभाविक रूप से बराबर होता रहा है। निम्न उदाहरणों से उक्त कथन की पुष्टि करने का प्रयत्न किया जा रहा है ।
शब्दालंकार :
वीप्सा - लघु लघु सर कर धनक लघु, लघु वय बाळक लार ।
सू.प्र. भाग १, पृ. २३
वयण सगाई - सम्पूर्ण ग्रंथ में इसका निर्वाह हुआ है । अनुप्रास - ग्रन्थ में प्रायः सभी जगह किसी न किसी रूप में मिल जाता है | प्रर्थालंकार :
उपमा - क्रीड़ा विलास विध- विध करं, 'अभौ' इंद आडंबरां ।
उत्प्रेक्षा - 'अजमलं' जुहार बैठो 'प्रभौ', सनमुख तेज समीपियौ । रघुनाथ जांणि रवि वंस रवि, दसरथि आगळ दीपियौं । छंद
ग्रंथ में संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी तथा हिन्दी के विभिन्न छंदों का प्रयोग प्रायः प्रसंगानुकूल किया गया है । युद्ध के लम्बे वर्णन के लिये त्रोटक, मोतीदाम, पद्धरी और कवित्त (छप्पय ) को अधिक अपनाया गया है। निम्न छंदों का प्रयोग ग्रंथ में किया गया है
१. प्रत गति ( अमृत गति ) - यह राजस्थानी और हिन्दी दोनों में प्रयुक्त होने वाला छंद है । राजस्थानी के छंदशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'रघुवरजसप्रकास' व हिन्दी के 'छंदप्रभाकर' अनुसार इसके प्रत्येक चरण में नगण, जगण, नगण तथा अंत में गुरु होता है । समूचे ग्रन्थ में केवल एक स्थान पर ही इस छंद का प्रयोग हुआ है जिसकी संख्या भी एक ही है, किन्तु इसमें उक्त लक्षण पूर्ण रूप से लागू नहीं होते हैं । इस छंद का दूसरा नाम त्वरित गति ( त्वरित गति : ) है ।
२. श्ररध नाराच (अर्द्ध नाराच ) - ग्रन्थ के प्रथम भाग में इसकी संख्या १४ है ।
३. इकतीसा - समूचे ग्रन्थ में इसकी संख्या एक है जो ग्रन्थ के दूसरे भाग में आया हुआ है ।
४. कलहंस - इस छंद के लक्षण भिन्न-भिन्न प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न दिये हैं । ग्रन्थ के प्रथम भाग में इसकी संख्या सात है ।
५. कवित्त कुंडलियों - यह एक मात्रिक छंद है । रघुवरजसप्रकास के अनुसार इसमें प्रथम कुंडळिया की छः पंक्तियां जो क्रमशः १३-११, १३-११, १११३, ११-१३, ११-१३, ११-१३ मात्रात्रों की होती हैं। अंतिम दो पंक्तियां
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