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उल्लाला की होती हैं जिनमें क्रमशः १५-१३, १५ - १३ मात्राएँ होती हैं । कुंडलिया के प्रथम चरण को उलट कर उल्लाला के अंतिम चरण में रखा जाता है। किन्तु ग्रंथकर्त्ता ने कुंडलिया के प्रथम चरण को उल्लाला के अंतिम चरण में नहीं रखा है । ग्रंथ में इसकी संख्या एक है जो ग्रंथ के दूसरे भाग में है ।
६. कवित्त दौढौ - केवल राजस्थानी का ही एक मात्रिक छंद है । राजस्थानी के प्राप्य छंदशास्त्रों में लक्षण नहीं देखे गये हैं किन्तु स्वर्गीय श्री हरिनारायणजी पुरोहित, जयपुर के मतानुसार इसमें छः पद रोला के तथा अंतिम दो पद उल्लाला के होते हैं । अतः इसमें साधारण छप्पय ( कवित्त ) से दो चरण अधिक होने के कारण यह कवित्त दौढ़ौ कहलाता है । समूचे ग्रंथ में इसकी संख्या आठ है ।
७. कुस विचित्रा - यह एक अनिश्चित छंद है । छंदप्रभाकर में कुसुम - बिचित्रा छंद दिया हुआ है किन्तु उससे इसके लक्षण मेल नहीं खाते हैं। समूचे ग्रंथ में इसकी संख्या केवल एक है ।
८. गाथा ( गाहा ) - यह संस्कृत का आर्या छंद है । समूचे ग्रंथ में इसकी संख्या १२ है |
६. गाथा चौसर ( गाहा चौसर ) - यह राजस्थानी का एक मात्रिक छंद है । समूचे ग्रन्थ में इसकी संख्या केवल एक है जो ग्रन्थ के पहले भाग में है ।
१०. गीत त्रकुटबंध - डिंगल ( राजस्थानी ) का एक गीत ( छंद ) विशेष । समूचे ग्रंथ में आठ द्वालों का एक गीत है जो ग्रन्थ के पहले भाग में है ।
११. गीत सांगोर - राजस्थानी का एक गीत ( छंद) विशेष । समूचे ग्रंथ में चार द्वालों का एक गीत है जो ग्रंथ के दूसरे भाग में है ।
१२. चंचली ( चंचला ) - एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगण, जगण, रगण, जगण, रगण व लघु के क्रम से १६ अक्षर होते हैं । इसका दूसरा नाम चित्रा है । ग्रन्थ में उक्त लक्षण नहीं मिलने के कारण छंदोभंग दोष है ।
यथा
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झळाळ सूज पूजै भुजः पतिसाह
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दिलीहूत घर दावो, उससे पठाण एक ॥।
समूचे ग्रंथ में इसकी संख्या ५ है जो ग्रन्थ के प्रथम भाग में है ।
१३. छप्पय ( षट्पद) - इसको राजस्थानी में कवित्त कहते हैं समूचे
ग्रन्थ में इसकी संख्या ३६४ है ।
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