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[ २६ ] पादपूर्ति के लिये ग्रंथ में प्रायः 'ह', 'स', 'क' और 'य' अक्षरों का प्रयोग हुआ है । वेदों एवं संस्कृत साहित्य में भी 'ह' पादपूर्ति के रूप में प्रचुर मात्रा में
आया है' । ग्रंथानुसार निम्न उदाहरण में 'क' अक्षर पादपूर्ति के लिये प्रयुक्त हुआ है :'उमेदक प्रागळि पांण अछेह'
सू. प्र. भाग ३, पृ. १२० निम्न उदाहरण में 'य' अक्षर प्रयुक्त हुआ है_ 'पतावत' गोपिय नाथ प्रचंड।
सू. प्र. भाग ३, पृ. १४७ इसी प्रकार निम्न उदाहरण में 'ह' अक्षर प्रयुक्त हुआ है-- 'उमेदहवार लई भड़ ओप'
सू. प्र. भाग २, पृ. १६१ । कवि ने यथास्थान मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग कर के भाव को अधिक स्पष्ट और भाषा को सरस बनाया है• जिको करू ऊजळी, जंग करि लूंण 'जसा' रौ।
सू. प्र. भाग २, पृ. २७ यहां पर 'लूण ऊजळी करणो' मुहावरा है । दिली झोला खाए दळ ।'
सू. प्र. भाग २, पृ. ४८ यहाँ पर 'झोला खाणौ' मुहावरा है। 'दीवो कर देख इसी नह लाय अकारी'
सू. प्र. भाग २, पृ. २४१ यहाँ पर 'लायनै दीवौ कर देखणी' लोकोक्ति है।
अंत में यह कहना होगा कि ग्रंथ में वर्णन की विशदता है । प्रायः सरल और स्वाभाविक शैली द्वारा भावों का समुचित उत्कर्ष दिखलाने में कवि महोदय पूर्ण रूप से सफल हुए हैं। ग्रंथ में राजस्थानी भाषा का अधिक निखरा हुआ तथा सरस रूप दिखलाई देता है।
५ (अ) नैव चक्रे मनः स्थाने वीक्षमाणो महाबलो।
कपेः परमभीसस्य चित्तं व्यवससाद ह॥ सुग्रीवस्तु शुभं वाक्यं श्रुत्वा सर्व हनूमतः । ततः शुभतरं वाक्य हनूमन्तमुवाच ह॥
-बाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक ३.१६ । (प्रा) अमरकोश में भी इसका उल्लेख है
तु हि च म ह वै पादपूरणे इत्यमरः'। बाल्मीकि रामायण के बाद संस्कृत ग्रंथों में प्रायः इस प्रकार के प्रयोग नहीं मिलते।
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