Book Title: Studies in Desya Prakrit
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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की प्रक्रिया प्राकृत उद्धृलिय 'उद्धूलित', 'धूलिलिप्त', उद्घविय 'उद्धूपित' इत्यादि में है । तुप से इसी अर्थ में तुलिय 'वृतलिप्त', 'चिकना' बना है, और 'गाथासप्तशती' में इसका प्रयोग है । तुप्प से सिद्ध मराठी तूप शब्द 'धी' अथ में अभी प्रचलित है । कन्नड में भी इसी अर्थ में तुष्य शब्द व्यवहृत होता है । मूल क्षण - वाचक तुप्प, चोपड और मक्खण (सं. म्रक्षण) तीनों शब्द बाद में 'वी' 'तेल' 'मक्खन' जैसे स्निद्ध पदार्थों के वाचक बन गए हैं ।
३. वयण
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'नायाधम्मका ' के 'शैलक' अध्ययन में अशुचि वस्त्र की शुद्धि - क्रिया के वर्णन में कहा गया है कि वस्त्र को 'पयण आरुहेइ' । वृत्तिकार ने अर्थ किया है 'पाकस्थाने चूल्ल्यादौ वाऽऽरापयति' । यह तो भावार्थ हुआ क्योंकि वस्त्र को पाकस्थान में अथवा चूल्हे पर चढ़ाने से पच्चन का सामान्य अर्थ समझा जाता है । चढ़ाने की क्रिया पर बल देने से लगता है कि यहाँ पयण या पचन शब्द प्रक्रिया के अर्थ में नहीं, पर साधन के अर्थ में लेना उचित हैपचन 'पकाने का पात्र' | चूल्हे पर कडाही में गरम पानी में मलिन वस्त्र को उबालने से उसकी स्वच्छता सिद्ध होती है । 'सूत्रकृताङ्गनियुक्ति' मं तथा 'जीवाजीवाभिगमसूत्र' में पण या पथणग का 'पचन-पात्र' के अर्थ में प्रयोग है ही । अर्वाचीन भाषाओं में गुजराती पेणी 'कडाही', पेणो 'कडाहा' एवं नेपाली पैनी 'मय निथारने का बरतन' मूलतः प्राकृत के पयण, सं. पवन से निष्पन्न हुए हैं । अर्वाचीन प्रयोग के आधार पर किसी ने संस्कृत में मी' पचनिका शब्द बना दिया है इस तरह आगम-थों के अनेक शब्दों के इतिहास की शृंखला प्रवर्तमान भाषाओं वयन्त अविच्छिन्न रूप में चली आई जान पडती है ।
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