________________
आचार्य अजितसेन और उनकी अमरकृति
'अलङ्कारचिन्तामणिः'*
-
-
(लक्षण ग्रन्थों में प्रमुख पाँच सम्प्रदायों की चर्चा आती है- (१) रस, (२) अलङ्कार, (३) रीति, (४) वक्रोक्ति, (५) और ध्वनि। इनके प्रवर्तक है क्रमश: (१) भरत, (२) भामह, (३) वामन, (४) कुन्तक और (५) आनन्दवर्धन। अजितसेन ने अपने ग्रन्थ में इन पाँचों का समन्वय किया है, जैसा कि उनके काव्यलक्षण से स्पष्ट है। - सं०)
भारतीय साहित्य में अलङ्कारशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राजशेखर के मत में अलङ्कारशास्त्र वेदों का सातवाँ अङ्ग है। अलङ्कारों के स्वरूप को जाने बिना वेदों को अर्थ समझ में नहीं आ सकता। ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर अब तक इस शास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले लगभग सात सौ ग्रन्थ रचे जा चुके हैं। जैन आचार्यों ने भी अनेक ग्रन्थ रचकर इस शास्त्र के महत्त्व को बढ़ाया है। आचार्य अजितसेन उन्हीं में से एक हैं। इन्होंने 'अलङ्कारचिन्तामणिः' नामक एक श्रेष्ठ ग्रन्थ की रचना की है।
रचयिता के नाम में भ्रम- स्वर्गीय श्री रावजी सखाराम जी दोशी ने इस ग्रन्थ को पहली बार शोलापुर से प्रकाशित किया था। इस मुद्रित प्रति के मुख पृष्ठ पर 'अलङ्कार चिन्तामणिः, भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीतः' छपा है, जो गलत है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता महापुराणकार भगवज्जिनसेनाचार्य नहीं हो सकते; क्योंकि इसमें हरिचन्द्र, वाग्भट, जयदेव और अर्हद्दास आदि अनेक अर्वाचीन आचार्यों के श्लोक उद्धृत हैं। पृष्ठ चौवालीस की पहली पंक्ति में ग्रन्थकार ने अपना नाम दिया है। 'अत्रैकाद्यङ्कक्रमेण पठिते सति अजितसेनेन कृतचिन्तामणि....' प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में परिशिष्ट पृष्ठ दस में भी जो चक्रबन्ध प्रकाशित है, उसमें भी अजितसेन लिखा हुआ है। अत: यह निश्चित है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक अजितसेन हैं, भगवज्जिनसेन नहीं।
रचना काल-प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन मनीषियों के श्लोक उद्धृत हैं, उनमें महाकवि अर्हद्दास भी हैं। इनका निश्चित समय विक्रम की चौदहवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग है। इन्होंने अपने 'मुनिसुव्रतकाव्यम्' 'पुरुदेवचम्पू:' और 'भव्यजनकण्ठाभरणम्' इन तीनों ग्रन्थों में पण्डित आशाधर का उल्लेख किया था। अत: अर्हद्दास का समय विक्रम *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org