Book Title: Sramana 1999 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 196
________________ १८९ की है, उसे दरकिनार कर मिथ्यात्व को स्थापित करने वाले विवाद उसी दर्शन के प्रणेता के नाम पर खड़ा किया जा रहा है। हमारे जिन पूर्वज आचार्यों की हृदय की उदारता इतनी अधिक थी कि उन्होंने अपने सम्पूर्ण ज्ञान को जगत् के कल्याण हेतु प्रस्तुत कर भी अपना नाम और समय की ढोल पीटने का दम्भ नहीं दिखाया, उन्हीं आचार्यों के समय और नाम पर तरह-तरह के पाखण्डवाद और वितण्डावाद को खड़ा कर उनकी मूल शिक्षा को उपेक्षित और अपमानित किया जा रहा है। अच्छा होता कि प्रस्तुत संगोष्ठी में डॉ० सुदीप जैन भी उपस्थित होकर अपनी बातों को रखते तथा वहीं पर इस विवाद का शालीन और सौहार्द्रपूर्ण समाधान ढूंढने का प्रयत्न होता, पर दुर्भाग्य से यह कमी रह गयी। पुस्तक में देश-विदेश के विद्वानों द्वारा संगोष्ठी की सफलता हेतु भेजे गये शुभकामना संदेशों को भी संकलित किया गया है। अतुल कुमार प्रसाद सिंह मेरुतुङ्गबालावबोधव्याकरणम्, कर्ता- अंचलगच्छीय आचार्य मेरुप्रभसूरि; सम्पादक- आचार्य कलाप्रभसागरसूरि; संशोधक- प्रो० नारायण म० कंसारा (अहमदाबाद); प्रकाशक- श्री आर्य-जय-कल्याण केन्द्र ट्रस्ट, मेघरत्न एपार्टमेन्ट, देरासर लेन, घाटकोपर (पूर्व) मुम्बई-४००००७; प्रथम संस्करण, १९९८ ई०; आकार- डिमाई; पृष्ठ ३८+९०; मूल्य ३०/- रुपये। ___ पन्द्रहवीं शताब्दी के रचनाकारों में अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतङ्गसरि का प्रमख स्थान है। इनके द्वारा रचित छोटी-बड़ी विभिन्न रचनायें उपलब्ध होती हैं जिनमें षदर्शनसमुच्चय, लघुशतपदी, जैनमेघदूतम, नेमिदूतमहाकाव्य, कातंत्रव्याकरणबालावबोधवृत्ति, मेरुतुङ्गबालावबोधव्याकरण, धातुपारायण, सप्तभाष्यटीका, स्थविरावली आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मेरुतुङ्गबालावबोधव्याकरण प्रथम बार आचार्य श्री कलाप्रभसागर जी द्वारा सम्पादित होकर उन्हीं के निर्देशन में श्री आर्य जय-कल्याण केन्द्र ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हो रही है। विद्वान् सम्पादक ने ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका दी है जिसके अन्तर्गत व्याकरण शब्द की उत्पत्ति, जैनाचार्यों द्वारा रचित व्याकरण ग्रन्थ, परमात्माश्री महावीरदेव और जैनेन्द्रव्याकरण, श्रीसिद्धहमशब्दानुशासन, जैनेतर व्याकरण ग्रन्थों पर जैनाचार्यों कृत टीकायें, पद्यबद्ध व्याकरणग्रन्थ और भोजव्याकरण, अंचलगच्छीय आचार्यों द्वारा रचित व्याकरण-ग्रन्थ आदि की संक्षिप्त किन्तु अत्यन्त सारगर्भित रूप में चर्चा की गयी है। - ग्रन्थकार का परिचय आठ पृष्ठों में दिया गया है जिसके अन्तर्गत उनके बाल्यावस्था, दीक्षा, आचार्य पद प्राप्ति, समय-समय पर किये गये चमत्कार, उनकी रचनायें, विशाल शिष्य परिवार आदि बड़े ही सुन्दर शब्दों में प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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