Book Title: Sramana 1999 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 199
________________ संस्थान के विकास में सहयोग का आह्वान (आयकर अधिनियम ८० जी० के अन्तर्गत देय अनुदान पर पचास प्रतिशत कर मुक्त ) पार्श्वनाथ विद्यापीठ पिछले साठ वर्षों से समग्र जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अनवरत लगा हुआ है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध संस्थान के रूप में उसे मान्यता मिली ही है, पूर्वांचल विश्वविद्यालय से भी मान्यता मिलने की उम्मीद है। यहां से मान्यता मिल जाने पर संस्थान में स्नातकोत्तर पाठयक्रम भी प्रारम्भ किये जा सकेंगे। अभी तक लगभग १५० छोटे-बड़े ग्रन्थ संस्थान से प्रकाशित हो चुके हैं और लगभग ६० छात्रों ने यहां से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। यहाँ छात्रों के आवास, पुस्कालय आदि की समुचित व्यवस्था है, रमणीय परिसर और सुन्दर वातावरण हैं। जैनधर्म पर शोध करने वाले छात्रों के लिए तो यह संस्थान एक महत्त्वपूर्ण देन है। सेठ हरजसराय जी द्वारा संस्थापित यह संस्थान श्री बी. एन. जैन और श्री इन्द्रभूति बरड़ जैसे सुप्रसिद्ध उद्योगपतियों द्वारा आरक्षित और सर्वश्री जगन्नाथ जैन, श्रीमती सीता देवी जैन, अमृतलाल जैन, नृपराज शादीलाल जैन, दीपचन्द्र जी गार्डी, नेमनाथ जैन, नक भाई शाह, पुखराजमल लुंकड, किशोर एम. वर्धन, शान्तिलाल बी. सेठ, बनारसी दास लाजवन्ती जैन, खांतिलाल शाह, सुमतिप्रकाश जैन, शौरीलाल जैन, लाला जंगीलाल जैन, लाला अरिदमन जैन, विजय कुमार जैन मोती वाला, राजकुमार जैन, अरुण कुमार जैन, जतिन्दरनाथ जैन, तिलकचन्द जैन, दुलीचन्द जैन आदि जैसे दानवीर महानुभावों से पोषित है। संस्थान के बढ़ते हुए चरण को और गतिमान् बनाने के लिए आप सभी के आर्थिक सहयोग की अपेक्षा है। यह सहयोग आप इस प्रकार दे सकते हैं १. ग्रन्थ प्रकाशन, २. ग्रन्थ क्रय, ३. आवास निर्माण, ४ पुस्तकदान, शोध छात्रवृत्ति, ६ . आल्मारी, पंखे आदि का दान, ७. श्रमण शोध पत्रिका ग्राहक । ५. वर्तमान में संस्थान के प्रकाशन प्राप्ति के लिए ११०००/- रुपये आजीवन सदस्यता शुल्क रखा गया है। इसके बदले फिलहाल हम अपने संस्थान का लगभग पन्द्रह हजार रुपये का प्रकाशित साहित्य भेंट देते है तथा भविष्य में होने वाले सभी प्रकाशन भी उन्हें भेंट दिये जाते है। उच्चकोटि के साहित्य प्रकाशन के लिए भी आप संस्थान से संपर्क करने के लिए सादर आमन्त्रित हैं। आपके या आपके निकटतम व्यक्ति की स्मृति में हम ग्रन्थ प्रकाशन करते हैं। श्रमण के सम्माननीय वार्षिक ग्राहकों से अनुरोध है कि वर्ष १९९९ का उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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