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(वि० १६वीं शती) ने भक्तामरोद्यापन तथा भक्तामरपूजा- इन दो कृतियों का निर्माण किया है एवं विश्वभूषण भट्टारक (वि० १८वीं शती) तथा पं० निनोदीलाल ने भक्तामरचरित का । सोमसेनाचार्य ने भक्तामर - महामण्डल - पूजा की रचना की । 'भक्तामर - कथा' का नाम भी सुनते हैं, पर वह भी इस समय मेरे सामने नहीं है ।
इस तरह तुलना, अवतरण और सम्बद्ध कृतियों से भक्तामर स्तोत्र के व्यापक प्रभाव का पता चलता है।
भक्तामर की टीकाएँ
हूंवणज्ञातीय व्रती श्रावक रायमल्ल ने, जिनकी माँ का नाम चम्पा और पिता का मह्य था, सं० १६६७ में प्रस्तुत स्तोत्र की संस्कृत टीका रची थी, जो भक्तामर - वृत्ति नाम से प्रसिद्ध है और सं० १८७० में जयचन्द्र ने इसकी संस्कृत एवं हिन्दी में दो टीकाएँ रचीं एवं हेमराज ने हिन्दी पद्यानुवाद की रचना की । इनके अतिरिक्त अनेक आधुनिक विशिष्ट दिगम्बर - श्वेताम्बर विद्वानों ने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी एवं अनेक प्रान्तीय भाषाओं में सुन्दर गद्य-पद्यात्मक अनुवाद लिखे हैं, फिर भी स्व० पन्नालालजी धर्मालङ्कार, प्रोफेसर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के आग्रह पर यह अनुवाद सन् १९५० में किया गया।
सन्दर्भ :
१.
भक्तामर स्तोत्र दोपहर से पहले ही पढ़ना चाहिए, सूर्योदय के समय सबसे उत्तम है । वर्ष भर निरन्तर पढ़ना शुरु करना हो तो श्रावण, भाद्रपद, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष या माघ में करें । तिथि पूर्णा, नन्दा और जया हो । शुक्ल पक्ष हो । उस दिन उपवास रखे या एकाशन करे । ब्रह्मचर्य से रहे ।
भक्तामर का दूसरा काव्य लक्ष्मी प्राप्ति और शत्रु विजय के लिए है। इसी प्रकार ६ बुद्धि प्रकाश के लिए, १० वचन सिद्धि के लिए, ११ खोई हुई वस्तु की पुन: प्राप्ति के लिए, १५ ब्रह्मचर्य, स्वप्नदोष की निवृत्ति, राजदरबार में सम्मान, प्रतिष्ठा और लक्ष्मी की वृद्धि के लिए, १९ दूसरों के द्वारा किए हुए जादू, भूत- - प्रेत का असर दूर हो, रोजगार अच्छा लगे, भाग्यहीन पुरुष भी भूखा न रहे, पुत्र की प्राप्ति हो, २१ स्वजन और परजन सबका प्रेम प्राप्त हो, २८ सब प्रकार की मन की शुभ इच्छा पूर्ण हो, ३६ सम्पत्ति का लाभ हो, ४५ सब प्रकार का भय और उपसर्ग दूर हो, तेज प्रताप प्रकट हो, सब प्रकार के रोगों की शान्ति हो, ४६ राजा का भय दूर हो, जेलखाने से छूटे |
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ऊपर के काव्यों का जाप एक माला प्रतिदिन प्रातः काल के समय करना चाहिए। यह भक्तामर स्तोत्र महाप्रभावशाली है । सब प्रकार से आनन्द मङ्गल करने वाला
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