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९५ प्रसिद्ध ग्रन्थोंका अभ्यास हो गया। इसके पश्चात् आपने तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, द्रव्यसंग्रह, अष्टपाहुड, समयसार, ज्ञानार्णव, प्रमेयरत्नमाला, आप्तमीमांसा, पत्रपरीक्षा और चन्द्रप्रभचरित (केवल दार्शनिक अंश-तत्त्वसंसिद्धिः) आदि अनेक ग्रन्थोंपर प्रामाणिक वचनिकाएँ रची, जिनमेंसे अधिकांश मुद्रित भी हो चुकी हैं। पं० टोडरमलजीकी भाँति आप भी अपने समयके लब्ध प्रतिष्ठ विशिष्ट विद्वान् रहे। यह सौभाग्य की बात है कि सर्वार्थसिद्धिकी वचनिकाके अन्तमें आपने अपना थोड़ा सा परिचय पद्यात्मक प्रशस्तिमें अङ्कित कर दिया था, जो आज इतिहासका काम दे रहा है। जीवनको अन्तिम अवधि (वि० सं० १८८१-८२) तक आपका लेखन कार्य जारी
रहा।
सन्दर्भ : १. चार्वाक दर्शन अत्यधिक प्राचीन है। जैन व जैनेतर दर्शनों के अतिरिक्त रामायण
और महाभारत में भी इसकी चर्चा पायी जाती है। महाभारल (शान्ति पर्व) के अनुसार इस नास्तिक दर्शनका सूत्रपात चार्वाक नामक राक्षसने किया था। लोकप्रचलित हो जानेसे बाद में इसकी ‘लोकायत' संज्ञा पड़ी। बृहस्पति इस दर्शनके प्रमुख आचार्य हुए, अत: इन्हीं के निमित्तसे इसका ‘बार्हस्पत्यदर्शन' नाम पड़ गया। बृहस्पति ने अपने सूत्रों में बतलाया है कि पृथ्वी, जल, तेज
और वायु ये चार ही तत्त्व हैं। इन्हींसे संयोग से देह के साथ चैतन्य उत्पत्र होता है, जो उसी के साथ नष्ट हो जाता है। उसे अगला जन्म नहीं लेना पड़ता। परलोक में जाने वाला कोई नहीं, अत: परलोक भी नहीं है। मरण ही मोक्ष है। सम्भोगजन्य सुख ही स्वर्ग है। कण्डकादिजन्य दुःख ही नरक है। राजा ही ईश्वर है। दण्डनीति ही एक विद्या है। प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है। इन्द्रियगोचर जगत् ही वास्तविक जगत् है। अतएव खाओ, पीओ और उड़ाओ। गांठमें पैसे न हों तो ऋण लेकर घी पीओ। ऋण चुकाने की चिन्ता करना व्यर्थ है; क्योंकि देहके भस्म होने पर फिरसे जन्म तो होता नहीं, जो अगले जन्ममें ऋण चुकाना पड़े-यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् (वर्तमान समयके अनुसार ‘हत्वा हत्वा सुरां पिबेत्')। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।' इत्यादि। आगे चल कर यह दर्शन अनेक शाखाओंमें विभक्त हो गया। इन्हीं शाखाओंमें तत्त्वोपप्लव दर्शन या वाद भी है, जो चार्वाकदर्शन की मान्यताओं का भी खण्डन करता है। सम्प्रति चार्वाक दर्शनका एक भी मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, पर तत्त्वोपप्लव दर्शनका एक ग्रन्थ- 'तत्त्वोपप्लवसिंहः' उपलब्ध है। यह १०वीं शतीका समझा जाता है। संभवत: पूर्वपक्ष लिखते समय यह ग्रन्थ वीरनन्दीके सामने रहा होगा। (चार्वाक दर्शनके अनुसार) पृथ्वी आदि (चार) तत्त्व लोकप्रसिद्ध हैं, पर वे भी जब विचार करनेपर सिद्ध नहीं होते, तब अन्य (जैन आदि दर्शनोंके मान्य) तत्त्व
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