Book Title: Sramana 1999 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 46
________________ * वीरनन्दी का अन्वेष्य विषय चन्द्रप्रभ का जीवनवृत्त था, जो उन्हें उत्तरपुराण से पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हुआ। यों यह पद्मपुराण में भी स्वल्पतम मात्रा में विद्यमान है, पर हरिवंश की तुलना में सर्वथा नगण्य है। हरिवंश में इसका जो थोड़ा-बहुत अंश सूत्र रूप में उपलब्ध है, वह उत्तरपुराण की तुलना में अपर्याप्त है। उत्तरपुराण के बाईस (४४-६५) पृष्ठों पर चन्द्रप्रभ का साङ्गोपाङ्ग जीवनवृत्त दो सौ छिहत्तर सुन्दर पद्यों में अङ्कित है। हरिवंशपुराण में चन्द्रप्रभ के जन्मादि स्थानों, पारिवारिक व्यक्तियों, विभूतियों, अतिशयों, पञ्चकल्याणकमितियों और गणधरादिकों की संख्या आदि का ही मुख्यतया उल्लेख है। लगभग इसी ढंग का अत्यन्त ही स्वल्प उल्लेख पद्मपुराण में है। जिनरत्नकोश (पृष्ठ ११९) आदि ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि आचार्य गुणभद्र के अतिरिक्त अन्य कवियों के भी भिन्न-भिन्न भाषाओं में निबद्ध चन्द्रप्रभचरित के सन्दर्भ मिलते हैं। निष्कर्ष यह कि वीरनन्दी के 'पुराणसागरे' पद से उन्हें जो विपुल पुराणवाङ्मय विवक्षित है, उनमें सम्प्रति उत्तरपुराण ही ऐसा है, जिसे उनकी कृति चन्द्रप्रभचरित की कथावस्तु का आधार माना जा सकता है। उत्तरपुराण और चन्द्रप्रभचरित के प्रतिपाद्य विषय में जहाँ-कहीं थोड़ा-बहत वैषम्य है, वहाँ हरिवंशपुराण आधार है और जहाँ उक्त दोनों से यो वैषम्य है, सम्भव है वहाँ कवि परमेश्वर का ‘वागर्थसंग्रहः' नामक पुराण आधार रहा हो, जिसके अनेक पद्य वीरनन्दी के समकालीन चामुण्डराय ने अपने पुराण में उद्धृत किये हैं। आदिपुराण के आधार पर निर्मित पुरुदेवचम्पू में यत्र-तत्र आदिपुराण के अनेक श्लोकों को थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ अपनाया गया है। ऐसा चन्द्रप्रभचरित में नहीं किया गया। उत्तरपुराण को कथावस्तु का आधार बनाकर वीरनन्दी ने अपनी कृति में अथसे इति तक सर्वत्र अपनी मौलिक प्रतिभा का उपयोग किया है। चन्द्रप्रभचरित के केवल एक स्थल में उत्तरपुराण के दो पदों का थोड़ा-सा साम्य है, जो अकस्मात् हुआ जान पड़ता है। चन्द्रप्रभचरित के 'गरुसेतुवाहिते' (१,१०) में 'गुरु' का अर्थ टीकाकार ने 'गणधर' और पञ्जिकाकार ने 'श्रीजिनसेनादि' किया है। यदि पञ्जिकाकार का अर्थ साधार हो तो उत्तरपुराण को चन्द्रप्रभचरित का आधार मानने की बात और पुष्ट हो जाती है; क्योंकि उत्तरपुराण जिनसेन की कृति का ही अङ्ग है। अथवा 'श्रीजिनसेनादि' में दिये गये 'आदि' से गुणभद्र को लिया जा सकता है। जो कुछ भी हो, यह सुनिश्चित है कि वीरनन्दी ने उत्तरपुराण से पर्याप्त लाभ उठाया है। इसके लिए उत्तरपुराण और चन्द्रप्रभचरित का साम्य ही साधक है, जो इस प्रकार हैसाम्य १. कथानक - दोनों का एक सा कथानक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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