Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 7
________________ * प्रामुख * अठारह दोषों से रहित, छयालोस गुणों से सहित, सर्वज्ञ और हितोपदेशी परहन्त-भगवन्तों के मुख-कमल से निर्गत दिव्य-वारणी का विभाजन चार अनुयोगों में हुआ है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग. चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इनके नाम हैं । जैनागम में करणानुयोग का बहुत विस्तार है। षट्खण्डागम आदि अनेक ग्रन्थ करणानुयोग के अन्तर्गत हैं । सिद्धान्त-चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार करणानुयोग का प्रसिद्ध ग्रन्थ है. इस ग्रन्थ में तीनों लोकों का विस्तृत वर्णन है, इसना अवश्य है कि गणित सम्बन्धी वासना-सिद्धि प्रादि के कारण इसका प्रमेय अति कठिन हो गया है, इसीलिए सकलकीाचार्य ने सिद्धान्तसार दीपक के प्रारम्भ में कहा है कि पूर्व मुनिराजों के द्वारा जो त्रिलोकसार प्रादि ग्रन्थों की रचना की गई है, वह अति दुर्गम एवं गम्भीर ( तद्-दुगंमार्थगम्भीर ....."11४२।। श्लोक ) है, अतः मैं 'बालजनों को जो सुगम पड़े ऐसे त्रैलोक्य सार (सिद्धान्त सार ) दीपक की रचना करूंगा। सिद्धान्तसार दीपक ग्रन्थ यथा माम तथा गुण युक्त है. इसमें सीमा सोकों के किसान वर्णन के साथ साथ अन्य भी संद्धान्तिक विषयों का सांगोपांग वर्णन किया गया है । रचना अत्यन्त सरल और सरस है । छठे अधिकार में पाण्डकवन विवेचन के अन्तर्गत चतुनिकाय देवों का जो चित्रण किया है, उसे पढ़ते समय यह अनुभव होता है कि मानो जन्माभिषेक को जाते हुए 'देवों की विभूति मादि को प्रत्यक्ष देख कर लिखा हो । ग्रन्थ में दो विषय विचारणीय हैं-- १. पृष्ठ १५९ पर जिनेन्द्र जन्माभिषेक के लिए पाण्डुक आदि शिलानों पर स्थित तीनतीन सिंहासनों का वर्णन करते हुए लिखा है कि मध्य का सिंहासन जिनेन्द्र की स्थिति अर्थात् बैठने का है, दक्षिण दिशागत सिंहासन सौधर्मेन्द्र के ( उपवेशनाय ) बैठने का तथा उत्तर दिशागत सिंहासन ऐशानेन्द्र के ( संस्थितये ) बैठने का है। इस कथन से यह ज्ञात होता है कि जन्माभिषेक के समय सौधर्मशान-इन्द्र, भगवान का जन्माभिषेक बैठ कर करते हैं। २. पृष्ठ ५६० श्लोक ८ में सिद्धभगवान का प्राकार पूर्व शरीर के प्रायाम एवं विस्तार के प्रमाण से एक विभाग । भाग ) कम कहा गया है, जब कि सभी जैनागम पूर्व शरीर से किञ्चिद् कम (ऊन) कहते हैं। १. निज-शक्त्या मुदाभ्यस्य, लोक्यसार दीपकम् । सुगर्म बालबोधायान्यान् ग्रन्धानागमोद्भवात् ॥

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