Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 6
________________ प्रस्तावना "नामाकृतिद्रव्य भावै, पुनतस्त्रिजगज्जनम्। क्षेत्रे काले च सर्व्वस्मिन्नर्हत : समुपास्मेह।।" समस्त लोकों और सब कालों में अपने नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निपेक्षों द्वारा संसार के प्राणियों को पवित्र करने वाले तीर्थंकरों की आराधना हम करते हैं। विषय के भोगने में रोगों का, कुल में दोषों का, मौन रहने में दीनता का, बल में शत्रुओं का, सौंदर्य में बुढ़ापे का, गुणों में दुष्टों का और शरीर में मृत्यु का भय हमेशा विद्यमान रहता है। अगर संसार में भय नहीं है तो केवल तीर्थंकरों उपासना में जहाँ केवल सुख-आनन्द और परम शान्ति मिलती है। जन्म, मरण, रोग, शोक शत्रुओं के भय से मुक्ति का एक मात्र उपाय तीर्थंकरों द्वारा प्रदर्शित मार्ग है जिस पर चल कर ही मानव अपने संसारिक दुःखों से छुटकारा पा सकता है। यह संसार जन्म और मृत्यु का अनन्त चक्र है। मनुष्य अच्छे कर्म करके अच्छा जन्म पा सकता है और अशुभ कर्मों से कर्मों का बन्ध कर संसार परिभ्रमण करता है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म भावी सुख और दुःख का कारण बनते हैं अर्थात् इनके फलों का परिणाम निश्चय ही इसी जन्म में अथवा अगले जन्म जन्मान्तर तक भोगना पड़ता है। इसी कर्म सिद्धान्त के महत्व को दर्शाने वाला "श्रीपाल चरित्र कथानक” बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी के शासन काल का है जिसे तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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