Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 8
________________ -: लेखकको ओरसे :'श्रावक' अर्थात् मुनिका लघुनाता ! उसका भी जीवन कैसा पवित्र आदर्शरूप और महान होता है-वह इन प्रवचनोंको पढ़ने पर समझमें भायेगा। इस पुस्तकमें श्रावकके धर्मों का सर्वांगसुन्दर वर्णन है। गृहस्थदशामें रहनेवाला श्रावक भी मोक्षमार्गमें गमन करता है। ऐसे श्रावकको धर्माचरण कैसा होता है उसका विस्तृत वर्णन करते हुए प्रथम तो 'सर्वशकी प्रद्धा' होना बतलाया है। साथ ही उसकी शुद्धदृष्टि कैसी होती है और व्यवहार आचरण कैला होता है तथा वीतरागी देव-गुरुकी पूजा-भक्ति, दया-दान, साधर्मी-प्रेम, स्वाभ्याम इत्यादिके परिणाम कैसे होते हैं ? इसका भी विस्तृत वर्णन किया है। निश्चयके साथ सुसंगत व्यवहारका इतना सुन्दर स्पष्ट, भावभरा उपदेश श्री रत्नकरंड श्रावकाचार जैसे प्राचीन ग्रन्थोंके अतिरिक्त आधुनिक साहित्यमें देखनेको नहीं मिलता। इस शैलीके प्रवचनोंका यह प्रथम ही प्रकाशन है। गृहस्थ भावकोंके धर्म-कर्त्तव्यका इसमें विस्तृत उपदेश होनेसे सबके लिए उपयोगी है। श्रावकधर्मका ऐसा सरस वर्णन भावसे पढ़ने पर पढ़नेवालेको ऐसी ऊर्मियां जागृत होती है-मानों स्वयं ही उस धर्मका आचरण कर रहा हो, आहारदानका वर्णन पढ़ते समय मानों स्वयं ही मुनिवरोंको भक्तिसे आहार दे रहा हो! जिनप्रतिमाका वर्णन पढ़ते समय मानों स्वयं ही प्रतिमाजीकी स्थापना या पूजन कर रहा हो! ऐसे भाव जागृत होते हैं। दानका वर्णन पढ़ने पर तो निर्लोभतासे हृदय एकदम प्रसन्न हो उठता है, और देवगुरुकी भक्तिका वर्णन पढ़ते समय तो मानो हम संसारको भूल ही जाते है और जीवन देव-गुरुमय बन जाता है। तदुपरान्त साधर्मीके प्रति वात्सल्य इत्यादिका वर्णन भी धार्मिक प्रेमकी पुष्टि करता है। सर्वक्षदेवकी पहिचान और प्रतीति तो सम्पूर्ण पुस्तकमें प्रारम्भसे अन्त तक व्यक की हुई है। इस श्रापकर्मक प्रवचनकार पू. श्री कानजी स्वामीका मेरे जीवन में परम उपकार है। २८ वर्षसे पू. गुरुदेवकी मंगल-छायामें निरन्तर रहनेके सुयोगसे और उनकी कृपासे मेरे जीवन में जो महान लाभ हुआ है, इसके उपरांत पू. गुरुदेवके अनेक प्रवचन लिखनेका और उमको ग्रन्थारड़ करमेका सुयोग मुझे मिला है, उसको मैं मेरे स्त्रीधनमें माद् सद्भाग्य मानता हूँ...और इसी प्रकार सदैव गुरुदेवकी मंगल चरणसेवा करता हुआ मास्महितकी साधना करें और शुद्ध भावकधर्मके पालनका मुझे शीघ्र अवसर मिले ऐसी भावना भाता हूँ। मयजिनेन्द्र धीर सं. २४९६ अषाढ़ सुदी २ -घ्र. हरिलाल जैन सोनगढ़

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