Book Title: Shodshaka Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Buddhisagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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श्रीषोडश
टीकाद्वयसमेतम्.
प्रकरणम्.
प्रतिपादितमैहभाविकपारभाविकलिंगान्याश्रित्याऽमेध्योत्करस्याप्युच्चारनिकरकल्पस्यापि । प्रवचनोदिताशेषगुणशून्यस्येति यावत् । यत उक्तमणंतसो दवलिंगाई ॥६॥
उ० उक्तार्थे तंत्रांतरसंवादमप्याह । मिथ्येत्यादि हिर्यस्मादपरैरपि तंत्रांतरीयैरप्यशुभभावस्य पुंस इदं केवलं बाह्यलिंग मिथ्याचारस्य फलं गीतं । मिथ्याचारस्वरूपं चेदं "बायेंद्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इंद्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यत" इति । सूत्रेऽपि स्वकीयागमेप्येतद्वाह्यलिंगमविकलं परिपूर्णममेध्योत्करस्याप्युच्चारनिकरकल्पस्याप्युक्तमनंतशो द्रव्यलिंगग्रहणश्रवणात् ॥ ६॥
मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तमित्युक्तं । तत्र किं तदित्याह ॥ - वृत्तं चारित्रं खल्वसदारंभविनिवृत्तिमत्तच्च ॥ सदनुष्ठानं प्रोक्तं कार्य हेतूपचारेण ॥७॥ य. वृत्तंवर्तनं, विधिप्रतिषेधरूपं । तच्च चारित्रमेव । खलुशब्दस्यावधारणार्थत्त्वात्तच्चेह सदनुष्ठानं प्रोक्तं । तत्कीदृशमसदारंभविनिवृत्तिमत् असदारंभोऽशोभनारंभः प्राणातिपाताद्याश्रवपंचकरूपस्ततोनिवृत्तिमद्धिंसादिनिवृत्तिरूपमहिंसाद्यात्मकं ननु कथं सदनुष्ठानं चारित्रमभिधीयते । यतश्चारित्रमांतरपरिणामरूपं । सदनुष्ठानं तु बाह्यसक्रियारूपं । तदनयोः स्वरूपभेदः परिस्फुट एवास्तीत्याशंक्याह । कार्ये हेतूपचारेण कार्ये सदनुष्ठानरूपे हेतूपचारेण भावोपचरणात्तत्पूर्वकत्वात्सक्रियायाः । यच्चांतरपरिणामविकलं तत् सदनुष्ठानमेव न भवतीतिभावः ॥७॥
उ. वृत्तमाश्रित्याह । वृत्तमित्यादि। वृत्तं विधिप्रतिषेधरूपं वर्त्तनं चारित्रमेव खलुरवधारणार्थः तच्चेहामंदारंभाश्रवरूपाद्वि
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