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( १०)
इन लेश्याओंमेंसे जिसमें सर्व प्रथम गुणका निर्देश किया है वह उसमें सबसे स्तोक है और आगेके गुण उस लेश्यामें उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं । कापोत और पद्मलेश्या तीन तीन प्रकारसे निष्पन्न होती हैं। शेष लेश्यायें एक ही प्रकारसे निष्पन्न होती हैं। तथा कापोत लेश्याम द्विस्थानिक अनुभाग होता है और शेष लेश्याओंमें विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक अनुभाग होता है।
मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगसे उत्पन्न हुए जीवके संस्कारविशेषका नाम भावलेश्या है । द्रव्यलेश्याके समान ये भी छह प्रकारकी होती हैं। उनमें से कापोत लेश्या तीव्र होती है, नीललेश्या तीव्रतर होती है और कृष्ण लेश्या तीव्रतम होती है । पीतलेश्या मन्द होती है, पद्मलेश्या मन्दतर होती है और शुवललेश्या मन्दतम होती है । ये छहों लेश्यायें षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिको लिए हुए होती हैं । तथा इनमें भी कापोतलेश्या द्विस्थानिक अनुभागको लिए हुए होती है और शेष पाँच लेश्यायें द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक अनुभागको लिए हुए होती हैं । इस प्रकार इस अधिकारमें लेश्याओंका उक्त प्रकारसे वर्णन करके अन्त में तीव्रता और मन्दताकी अपेक्षा अल्पबहुत्व बतला कर यह अधिकार समाप्त किया गया है ।
१४ लेश्याकर्म-कृष्णादि लेश्याओंमेंसे जिसके आलम्बनसे मारण और विदारण आदि जिस प्रकारकी क्रिया होती है उसके अनुसार उसका वह लेश्याकर्म माना गया है। उदाहरणार्थ कृष्लेश्यासे परिणत हुआ जीव निर्दय, कलहशील, रौद्र, अनुबद्धवैर, चोर, चपल, परस्त्रीमें आसक्त, मधु, मांस और सुरामें विशेष रुचि रखनेवाला, जिनशासनके सुननेम अतत्पर और असंयमी होता है । इसी प्रकार अन्य लेश्याओंका अपने अपने नामानुरूप कर्म जानना चाहिए । इस प्रकार इस अधिकारमें लेश्याकर्मका विचार किया गया है।
१५ लेश्यापरिणाम- कौन लेश्या किस रूपसे अर्थात् किस वृद्धि या हानिरूपसे परिणत होती है इस बात का विचार इस अधिकारमें किया गया है । इसमें बतलाया है कि कृष्णलेश्याम षट्स्थानपतित संक्लेशकी वृद्धि होने पर उसका अन्य लेश्या में संक्रमण न होकर स्वस्थानम ही संक्रमण होता है। मात्र विशुद्धिकी वृद्धि होने पर उसका अन्य लेश्यामें भी संक्रमण होता है और स्वस्थानमें भी संक्रमण होता है। इतना अवश्य है कि कृष्णलेश्यामेंसे नीललेश्यामें आते समय नियमसे अनन्तगुणहानि होती है । नीललेश्यामें संक्लेशकी वृद्धि होने पर स्वथानसंक्रमण भी होता है और नीलसे कृष्णलेश्यामें भी संक्रमण होता है । तथा विशुद्धि होने पर स्वस्थान संक्रमण भी होता है और नीललेश्यासे कापोतलेश्यामें भी संक्रमण होता है । मात्र नीललेश्यासे कृष्ण लेश्यामें जाते समय संक्लेशकी अनन्तगुणी वृद्धि होती है और नीलसे कापोत लेश्यामें आते समय संक्लेशको अनन्तगुणी हानि होती है । इसी प्रकार शष चार लेश्याओंमें भी परिणामका विचार कर लेना चाहिए । इस प्रकार इस अधिकार में परिणामका विचार कर तीव्रता और मन्दताको अपेक्षा संक्रम और प्रतिग्रहके अल्पबहुत्वका विचार करते हुए इस अधिकारको समाप्त किया गया है।
१६ सातासात- इस अनुयोगद्वारका यहाँ पर पांच अधिकारोंके द्वारा विचार किया गया है । वे पाँच अधिकार ये हैं-समुत्कीर्तना, अर्थपद, पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व। समुत्कीर्तनामें बतलाया गया है कि एकान्त सात और अनेकान्त सातके भेदसे सात दो प्रकारका है । तथा इसी प्रकार एकान्त असात और अनेकान्त असातके भेदसे असात भी दो प्रकारका है। अर्थपदका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जो कर्म सातरूपसे बद्ध होकर यथावस्थित
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