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कहा है कि एक उत्तर प्रकृतिके प्रदेशोंका अन्य सजातीय प्रकृतिमें संक्रमित होना प्रदेशसंक्रम कहलाता है। प्रदेशसंक्रम भी मलप्रकृतियोंमें न होकर उत्तर प्रकृतियोंमें होता है। तदनुसार उत्तर प्रकृतिसंक्रमके पाँच भेद हैं- उद्वेलनसक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्त संक्रम गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम । आगे ये संक्रम किस अवस्थामें और कहाँ होते हैं तथा किन प्रकृतियोंके कितने संक्रम होते हैं यह बतला कर इन संक्रमोंके अवहारकालके अल्पबहत्वका निर्देश किया गया है। आगे स्वामित्व आदि अनयोगद्वारोंका आश्रय लेकर भजगार, पदनिक्षेप और वृद्धिसंक्रमका निर्देश करते हुए इस प्रकरणको समाप्त किया गया है।
१३ लेश्या- लेश्याका निक्षेप चार प्रकारका है- नामलेश्या, स्थापनालेश्या, द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । यहाँ इन नामलेश्या आदि इन निक्षेपोंका स्पष्टीकरण करते हुए तद्व्यतिरिक्त द्रव्यलेश्याके विषयमें लिखा है कि चक्ष इन्द्रियद्वारा ग्राह्य पुद्गलस्कन्धोंके कृष्ण आदि छह वर्णोंकी द्रव्यलेश्या संज्ञा है। यहाँ इनके उदाहरण भी दिये गये हैं। भावलेश्याके आगम और नोआगम ये भेद करके नोआगम भावलेश्याका वही लक्षण दिया है जो सर्वत्र प्रसिद्ध है । प्रकृतमें नैगमनयकी अपेक्षा नोआगमद्रव्यलेश्या और भावलेश्या प्रकृत है यह कहकर द्रव्यलेश्याके असंख्यात लोकप्रमाण भेद होने पर भी छह भेद ही क्यों किये गये हैं इसका स्पष्टीकरण किया गया है।
आगे शरीरके आश्रयसे किन जीवोंके कौन लेश्या होती है यह बतला कर छह शरीरोंकी द्रव्यलेश्याओंका अलग अलग विचार किया गया है। यद्यपि कृष्णादि द्रव्यलेश्याओंमें एक एक गुणकी मुख्यतासे नामकरण किया जाता है पर इसका यह अभिप्राय नहीं है कि इनमेंसे प्रत्येकमें एक एक गुण ही होता है, इसलिए आगे किस लेश्यामें किस क्रमसे कौन कौन गुण होते हैं इसका स्पष्टीकरण तालिका द्वारा कराया जाता है--
लेश्या नाम
कृष्णले.
शक्ल
पीत
लाल
नील
कृष्ण
नीलले०
शुक्ल
|
पीत
लाल
।
कृष्ण
नील
कापोतले०
शक्ल
पीत
कृष्ण
लाल
नील
कापोतले.
- शक्ल
कष्ण
पीत
नील
लाल
कापोतले०
कृष्ण
शक्ल
नील
पीत
लाल
पीतले०
कृष्ण
नील
शुक्ल
पीत
लाल
पद्मले०
कृष्ण
नील
लाल
पीत
पद्मले०
कृष्ण
नील
लाल
शुक्ल
पीन
पद्मले०
कृष्ण
न.ल
पीत
शुक्ल
शुक्लले०
कृष्ण
नील
पीत । शुक्ल
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