Book Title: Shatkhandagama Pustak 15
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 21
________________ ( १० ) द्वारा यथासम्भव स्थान उदीरणाकी प्ररूपणा की गयी है । वेदनीय और आयु कर्मोके स्थान उदीरणाकी सम्भावना नही है। भुजाकार उदीरणा- यहाँ प्रथमतः दर्शनावरणके सम्बन्धमें भुजाकार अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य इन चारों ही उदीरणाओंके अस्तित्वकी सम्भावना बतलाकर तत्पश्चात् उनके स्वामी, एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल व अन्तरका तथा अल्पबहुत्वका संक्षेपमें विवेचन किया गया है । आगे चलकर इसी क्रमसे मोहनीयके सम्बन्धमें भी भुजाकार उदीरणाकी प्ररूपणा करके उसे यहीं समाप्त कर दिया है । नामकर्म आदि अन्य कर्मोंके सम्बन्धमें उक्त प्ररूपणा नहीं की गयी है। इसके पश्चात् अति संक्षेप में पदनिक्षेप और वृद्धिप्ररूपणा करके प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा समाप्त की गयी है। स्थितिउदीरणा- यह भी मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणा और उत्तरप्रकृतिस्थिति उदीरणाके भेदसे दो प्रकारकी है। मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणामें मूल प्रकृतियोंके आश्रयसे स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण बतलाया गया हैं । जैसे- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोंको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियोंसे कम तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है । यहाँ उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाम दो आवली कम बतलानेका कारण यह है कि बन्धावली और उदयावलीगत स्थिति उदीरणाके अयोग्य होती है । जघन्य स्थितिउदीरणा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकी एक स्थिति मात्र है जो कि ऐसे क्षीणकषाय जीवके पायी जाता है जिसे अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय होने में एक समय अधिक एक आवली काल शेष है। मोहनीयकी जघन्य स्थिति उदीरणा भी एक स्थितिमात्र है जो कि ऐसे सूक्ष्मसांपरायिक क्षपकके पायी जाती है जिसके अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक होने में एक समय अधिक आवलि मात्र स्थिति शेष रही है । वेदनीयके जघन्य स्थितिउदीरणा पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन तीन बटे सात (1) सागरोपमप्रमाण है। जिस प्रकार मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणामें मूलप्रकृतियोंके आश्रयसे यह प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकारसे उत्तर प्रकृति स्थिति उदीरणामें उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे उक्त प्ररूपणा की गयी है। स्वामित्व- पांच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिके उदीरक कौन और किस अवस्थामें होते हैं, इसका विचार स्वामित्वप्ररूपणामें किया गया है। एक जीवकी अपेक्षा काल- उक्त पांच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणा जघन्यसे कितने काल और उत्कर्षसे कितने काल होती है, इसका विचार यहाँ कालप्ररूपणामें किया गया है। उदाहरणके रूप में जैसे पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति की उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनरूप अनन्त काल है । उन्हीकी जघन्य स्थितिउदीरणाका काल जघन्यसे भी एक समय मात्र है और उत्कर्षसे भी एक समय मात्र ही है । इनकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका काल अभव्य जीवोंकी अपेक्षा अनादि-अपर्यवसित और भव्य जीवोंकी अनादि-सपर्यवसित है। ___एक जीवकी अपेक्षा अन्तर- जिस प्रकार काल प्ररूपणामें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणाओंके कालका कथन किया गया है उसी प्रकार अन्तर प्ररूपणामें उनके अन्तरका विचार किया गया है। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय- यहां अर्थपदके कथनमें यह बतलाया है कि जो जीव उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक होते हैं वे अनुत्कृष्ट स्थितिके अनुदीरक होते हैं और जो अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक होते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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