Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01 Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय उपोद्घात प्रस्तावना :- सन् १९७९ जुलाई में नागपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष पद से अवकाश प्राप्त करने के बाद, पारिवारिक सुविधा के निमित्त, मेरा निवास बंगलोर में था। सेवानिवृत्ति के कारण मिले हुए अवकाश में अपने निजी लेखों के पुनर्मुद्रण की दृष्टि से संपादन अथवा पुनर्लेखन करना, संगीत का अपूर्ण अध्ययन पूरा करना, अथवा कुछ संकल्पित ग्रंथों का लिखना प्रारंभ करना आदि विचार मेरे मन में चल रहे थे। इसी अवधि में एक दिन मेरे परम मित्र डॉ. प्रभाकर माचवे जी का कलकत्ता की भारतीय भाषा परिषद की ओर से एक पत्र मिला जिसमें परिषद द्वारा संकल्पित संस्कृत वाङ्मय कोश का निर्माण करने की कुछ योजना उन्होंने निवेदन की थी और इस निमित्त कुछ संस्कृतज्ञ विद्वानों की एक अनौपचारिक बैठक भी परिषद के कार्यालय में आयोजित करने का विचार निवेदित किया था। इसी संबंध में हमारे बीच कुछ पत्रव्यवहार हुआ जिसमें मैने यह भारी दायित्व स्वीकारने में अपनी असमर्थता उन्हें निवेदित की थी। फिर भी संस्कृत सेवा के मेरे अपने व्रत के अनुकूल यह प्रकल्प होने के कारण कलकत्ते में आयोजित बैठक में मैं उपस्थित रहा। भारतीय भाषा परिषद के संबंध में मुझे कुछ भी जानकारी नहीं थी। कलकत्ते में परिषद का सुंदर और सुव्यवस्थित भवन इस बैठक के निमित्त पहली बार देखा । सर्वश्री परमानंद चूड़ीवाल, हलवासिया, डॉ. प्रतिभा अग्रवाल इत्यादि विद्याप्रेमी कार्यकर्ताओं से चर्चा के निमित्त परिचय हुआ। सभी सज्जनों ने संकल्पित "संस्कृत वाङ्मय कोश" के संपादक का संपूर्ण दायित्व मुझ पर सौंपने का निर्णय लिया। इस बैठक में आने के पूर्व मेरे अपने जो संकल्प चल रहे थे, उन्हें कुण्ठित करने वाला यह नया भारी दायित्व, जिसका मुझे कुछ भी अनुभव नहीं था, स्वीकारने में मैने अपनी ओर से कुछ अनुत्सुकता बताई। मेरी सूचना के अनुसार संपादन में सहाय्यक का काम, वाराणसी के मेरे मित्र पं. नरहर गोविन्द बैजापुरकर जो उस बैठक में आमंत्रणानुसार उपस्थित थे, पर सौंपने का तथा संस्कृत वाङ्मय कोश का कार्यालय वाराणसी में रखने का विचार मान्य हुआ। वाराणसी में इस प्रकार के कार्य के लिए आवश्यक मनुष्यबल तथा अन्य सभी प्रकार का सहाय मिलने की संभावना अधिक मात्रा में हो सकती है, यह सोचकर मैंने यह सुझाव परिषद के प्रमुख कार्यकर्ताओं को प्रस्तुत किया था। इस कार्य में यथावश्यक मार्गदर्शन तथा सहयोग देने के लिए, यथावसर वाराणसी में निवास करने का मेरा विचार भी सभा में मंजूर हुआ। मेरी दृष्टि से कोशकार्य का मेरा वैयक्तिक भार, इस योजना की स्वीकृति से कुछ हलका सा हो गया था। हमारी यह योजना काशी में सफल नहीं हो पाई। 8-10 महीनों का अवसर बीत चुका। परिषद की ओर से दूसरी बैठक हुई जिसमें काशी का कार्यालय बंद करने का और मेरा स्थायी निवास नागपुर में होने के कारण, नागपुर में इस कार्य का “पुनश्च हरिःओम्" करने का निर्णय हमें लेना पड़ा। दिनांक 1 अप्रैल 1982 को नागपुर में कोश का कार्यालय शुरू हुआ। इस अभावित दायित्व को निभाने के लिए “मित्रसंप्राप्ति" से प्रारंभ हुआ। वाराणसी और नागपुर में सभी दृष्टि से बहुत अंतर है। काशी की संस्कृत परंपरा अनादिसिद्ध है। नागपुर की कुल आयु मात्र दो-ढाइसौ वर्षों की है। कोश हिन्दी भाषा में करना था। नागपुर की प्रमुख भाषा मराठी है। पुराने द्वैभाषिक मध्यप्रदेश की राजधानी जब तक नागपुर में रही, तब तक हिन्दी का प्रचार और प्रभाव कुछ मात्रा में दिखाई देता था। अतः हिन्दी भाषा के विशेषज्ञ सहकारी नागपुर में मिलना सुलभ नहीं था। नागपुर की अपनी सीमित सी संस्कृत परंपरा भी है परंतु हिन्दी भाषी अथवा हिन्दी ज्ञानी संस्कृतज्ञ उनमें नहीं के बराबर हैं। स्वयं मैं हिन्दी में लेखन भाषण आदि व्यवहार कई वर्षों से करता हूँ, परंतु हिन्दी भाषा या साहित्य का विधिवत् अध्ययन मैने कभी नहीं किया। कहने का तात्पर्य, नागपुर में संस्कृत वाङ्मय कोश का संपादन और वह भी हिन्दी माध्यम में करना, मेरे लिए जमीन पर नाव चलाने जैसा दुर्घट कार्य था। नागपुर में इस कार्य में जिनका सहकार्य मुझे मिल सका वे हैं - प्र.मु.सकदेव, ना.ग.वझे, डॉ.लीना रस्तोगी, डॉ. कुसुम पटोरिया, डॉ. गु.वा.पिंपळापुरे, डॉ. भागचंद्र जैन, सत्यपाल पटाईत, पद्माकर भाटे, ना.गो.दीक्षित, श्रीमती उषा महांकाल, श्रीमती शोभा For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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