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प्रो. सागरमल जैन
उन्होंने अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह पर विशेष बल दिया।
दुःख और दुःख - विमुक्ति
महाश्रमण महावीर के चिन्तन का मूल स्रोत जीवन की दुःखमयता का बोध ही है। उत्तराध्ययनसूत्र में वे कहते हैं
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जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसन्ति जन्तवो ।।
जन्म दुःखमय है, वृद्धावस्था भी दुःखमय है, रोग और मृत्यु भी दुःखमय है, अधिक क्या यह सम्पूर्ण सांसारिक अस्तित्व ही दुःख रूप है। संसार की दुःखमयता के इसी बोध से दुःख के कारण की खोज एवं दुःख विमुक्ति (मोक्ष या निर्वाण ) के चिन्तन का विकास हुआ है। जैन चिन्तकों ने यह माना कि सांसारिकता में सुख नही है। जिसे हम सुख मान लेते हैं, वह ठीक उसी प्रकार का है जिस प्रकार खुजली की बीमारी से पीड़ित व्यक्ति खाज को खुजाने में सुख मान लेता है, वस्तुतः वह सुख भी दुःख रूप ही है। संसार में धनी निर्धन, शासित - शासक सभी तो दःखी हैं। कहा है
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धन बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान ।
कबहु न सुख या संसार में, सब जग देख्यो छान ।।
संसार के इन दुःखों को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। एक तो भौतिक दुख, जो प्राकृतिक विपदाओं और बाह्य तथ्यों के कारण होते हैं और दूसरे मानसिक दुःख जो मनुष्य की आकांक्षाओं व तृष्णाओं से जन्म लेते हैं । महावीर की दृष्टि में इन समस्त भौतिक एवं मानसिक दुःखों का मूल व्यक्ति की भोगासक्ति ही है। मनुष्य अपनी कामनाओं की पूर्ति के द्वारा इन दुःखों के निवारण का प्रयत्न तो करता है, किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं करता जिससे दुःख प्रस्फुटित होता है क्योंकि वह बाहर न होकर हमारी चित्तवृत्ति में होता है । संयम (ब्रह्मचर्य) और संतोष (अपरिग्रह ) के अतिरिक्त मनुष्य की तृष्णा को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। महावीर ने कहा था कि बाह्य पदार्थों से इच्छाओं की पूर्ति का प्रयास वैसा ही है जैसे घृत डालकर अग्नि को शान्त करना। वह तो उससे शान्त न होकर अधिक प्रज्ज्वलित ह होती है। यह तो शाखाओं को काटकर जड़ों को पानी देने के समान है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि -
सुवण्ण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया । ।
चाहे स्वर्ण व रजत के कैलाश के समान असंख्य पर्वत क्यों न खड़े कर दिये जाय किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को पूर्ण करने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि इच्छा तो आकाश के सामान अनन्त है। समस्त दुःखों का मूल कारण भोगाकांक्षा, तृष्णा या ममत्व बुद्धि ही है । किन्तु इस भोगाकांक्षा की समाप्ति का उपाय इच्छाओं की पूर्ति नहीं है, अपितु संयम एवं निराकांक्षता ही है। यदि हम
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