Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 1
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 288
________________ प्रो. सागरमल जैन 247 के अतिरिक्त अन्य कोई शब्द-रुप उपलब्ध नहीं है। प्राकृत के भाषिक स्वरूप के सम्बन्ध में दूसरी कठिनाई यह है कि प्राकृत का मूल आधार क्षेत्रीय बोलियाँ होने से उसके एक ही काल में विभिन्न रूप रहे हैं। प्राकृत व्याकरण में जो "बहुलं" शब्द है वह स्वयं इस बात का सूचक है कि चाहे शब्द रूप हो, चाहे धातु रूप हो, या उपसर्ग आदि हो, उनकी बहुविधता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। एक बार हम मान भी लें कि एक क्षेत्रीय बोली में एक ही रूप रहा होगा, किन्तु चाहे वह शौरसेनी, अर्द्धमागधी या महाराष्ट्री प्राकृत हो, साहित्यिक भाषा के रूप में इनके विकास के मूल में विविध बोलियाँ रहीं हैं। अतः भाषिक एकरूपता का प्रयत्न प्राकृत की अपनी मूल प्रकृति की दृष्टि से कितना समीचीन होगा, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। पुनः चाहे हम एक बार यह मान भी लें कि प्राचीन अर्द्धमागधी का जो भी साहित्यिक रूप रहा वह बहुविध नहीं था और उसमें व्यंजनों के लोप, उनके स्थान पर "अ" या "य" की उपस्थिति अथवा "न" के स्थान पर "ण" की प्रवृत्ति नहीं रही होगी और इस आधार पर आचारांग आदि की भाषा का अर्द्धमागधी स्वरूप स्थिर करने का प्रयत्न उचित भी मान लिया जाये, किन्तु यह भी सत्य है कि जैन परम्परा में शौरसेनी का आगम तुल्य साहित्य मूलतः अर्द्धमागधी आगमसाहित्य के आधार पर और उससे ही विकसित हुआ, अतः उसमें जो अर्द्धमागधी या महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है, उसे पूर्णतः निकाल देना क्या उचित होगा ? यदि हमने यह दुःसाहस किया भी तो उससे ग्रन्थों के काल निर्धारण आदि में और उनकी पारस्परिक प्रभावकता को समझने में, आज जो सुगमता है, वह नष्ट हो जायेगी। यही स्थिति महाराष्ट्री प्राकत की भी है। उसका आधार भी अर्द्धमागधी और अंशतः शौरसेनी आगम रहे है यदि उनके प्रभाव को निकालने का प्रयत्न किया गया तो वह भी उचित नहीं होगा। खेयण्ण का प्राचीन रूप खेत्तन्न है। महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थ में एक बार खेत्तन्न रूप प्राप्त होता है तो उसे हम प्राचीन शब्द रूप मानकर रख सकते हैं, किन्तु अर्द्धमागधी के ग्रन्थ में "खेतन्न" रूप उपलब्ध होते हुए भी महाराष्ट्री रूप "खेयन्न" बनाये रखना उचित नहीं होगा। जहाँ तक अर्द्धमागधी आगम ग्रन्थों का प्रश्न है उन पर परवर्तीकाल में जो शौरसेनी या महाराष्ट्री प्राकृतों का प्रभाव आ गया है, उसे दूर करने का प्रयत्न किसी सीमा तक उचित माना जा सकता है, किन्तु इस प्रयत्न में भी निम्न सावधानियाँ अपेक्षित है -- ___ 1. प्रथम तो यह कि यदि मूल हस्तप्रतियों में कहीं भी वह शब्द रूप नहीं मिलता है, तो उस शब्द रूप को किसी भी स्थिति में परिवर्तित न किया जाये। किन्तु प्राचीन अर्द्धमागधी शब्द रूप जो किसी भी मूल हस्तप्रति में एक दो स्थानों पर भी उपलब्ध होता है, उसे अन्यत्र परिवर्तित किया जा सकता है। यदि किसी अर्द्धमागधी के प्राचीन ग्रन्थ में "लोग" एवं "लोय" दोनों रूप मिलते हों तो वहाँ अर्वाचीन रूप"लोय" को प्राचीन रूप "लोग" में रूपान्तरित किया जा सकता है किन्तु इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि एक पूरा का पूरा गद्यांश या पद्यांश महाराष्ट्री में है और उसमें प्रयुक्त शब्दों के वैकल्पिक अर्द्धमागधी रूप किसी एक भी आदर्श के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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