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प्रो. सागरमल जैन
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सं. 85 के बीच आता है और ऐसी स्थिति में शक सं. 54 में उनके किसी शिष्य के उपदेश से मूर्ति प्रतिष्ठा होना सम्भव है। यद्यपि 69 वर्ष तक उनका युग प्रधानकाल मानना सामान्य बुद्धि से युक्ति संगत नहीं लगता है । अतः नागहस्ति सम्बन्धी यह अभिलेखीय साक्ष्य पट्टावली की सूचना को सत्य मानने पर महावीर का निर्वाण ई. पू. 527 मानने के पक्ष में जाता है।
पुनः मथुरा के एक अभिलेखयुक्त अंकन में आर्यकृष्ण का नाम सहित अंकन पाया जाता है। यह अभिलेख शक संवत् 95 का है। 53 यदि हम आर्यकृष्ण का समीकरण कल्पसूत्र स्थविरावली में शिवभूति के बाद उल्लिखित आर्यकृष्ण से करते है54 तो पट्टावलियों एवं विशेषावश्यक भाष्य के आधार पर इनका सत्ता समय वीरनिर्वाण सं. 609 के आस-पास निश्चित होता है। 55 क्योंकि इन्हीं आर्यकृष्ण और शिवभूति के वस्त्र सम्बन्धी विवाद के परिणाम स्वरूप बोटिक निहून्व की उत्पत्ति हुई थी और इस विवाद का काल वीरनिर्वाण संवत् 609 सुनिश्चित है। वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर उस अभिलेख काल का 609-467=142 ई. आता है। यह अभिलेखयुक्त अंकन 95+78 = 173 ई. का है। चूँकि अंकन में आर्यकृष्ण को एक आराध्य के रूप अंकित करवाया गया है। यह स्वाभाविक है कि उनकी ही शिष्य परम्परा के किसी आर्य अर्ह द्वारा ई. सन् 173 में यह अंकन उनके स्वर्गवास के 20-25 वर्ष बाद ही हुआ होगा । इस प्रकार यह अभिलेखीय साक्ष्य वीरनिर्वाण संवत् ई. पू. 467 मानने पर ही अन्य साहित्यिक उल्लेखों से संगति रख सकता है, अन्य किसी विकल्प से इसकी संगति बैठाना सम्भव नहीं है।
मथुरा अभिलेखों में एक नाम आर्यवृद्धहस्ति का भी मिलता है। इनके दो अभिलेख मिलते हैं। एक अभिलेख शक सं. 60 (हुविष्क वर्ष 60 ) और दूसरा शक सं. 79 का है। 56 सन् की दृष्टि से ये दोनों अभिलेख ई. सन् 138 और ई. सन् 157 के हैं। यदि ये वृद्धहस्त ही कल्पसूत्र स्थविरावली के आर्यवृद्ध और पट्टावलियों के वृद्धदेव हों तो पट्टावलियों के अनुसार उन्होंने वीरनिर्वाण 695 में कोरंटक में प्रतिष्ठा करवाई थी। 57 यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानते हैं तो यह काल 695-467-218 ई. आता है । अतः वीरनिर्वाण ई. पू. 527 मानने पर इस अभिलेखीय साक्ष्य और पट्टावलीगत मान्यता का समीकरण ठीक बैठ जाता है। पट्टावली में वृद्ध का क्रम 25वाँ है । प्रत्येक आचार्य का औसत सत्ता काल 25 वर्ष मानने पर इनका समय वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर भी अभिलेख से वीरनिर्वाण 625 आयेगा और तब 625-467=158 ई. संगति बैठ जायेगी।
अन्तिम साक्ष्य जिस पर महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण किया जा सकता है, वह है महाराज ध्रुवसेन के अभिलेख और उनका काल । परम्परागत मान्यता यह है कि वल्लभी की वाचना के पश्चात् सर्वप्रथम कल्पसूत्र की सभा के समक्ष वाचना आनन्दपुर (बडनगर ) में महाराज धुवंसेन के पुत्र - मरण के दुःख को कम करने के लिये की गयी । यह काल वीरनिर्वाण सं. 980 या 993 माना जाता है। 58 ध्रुवसेन के अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं। ध्रुवसेन प्रथम का काल ई. सं. 525 से 550 तक माना जाता है। 59 यदि यह घटना उनके राज्यारोहण के द्वितीय वर्ष ई. सन् 526 की हो तो महावीर का निर्वाण 993-526=469 ई. पू. सिद्ध होता है ।
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