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आधार पर इनका काल शक सं. 52 (हुविष्क वर्ष 52 ) अर्थात् ई. सन् 130 आता है 48 अर्थात् इनके पट्टावली और अभिलेख के काल में वीरनिर्वाण ई. पू. 527 मानने पर लगभग 200 वर्षों का अन्तर आता है और वीरनिर्वाण ई. पू. 467 मानने पर भी लगभग 127 वर्ष का अन्तर तो बना ही रहता है। अनेक पट्टावलियों में आर्य मंगु का उल्लेख भी नहीं है । अतः उनके काल के सम्बन्ध में पट्टावलीगत अवधारणा प्रामाणिक नहीं है । पुनः आर्य मंगु का नाम मात्र जिस नन्दीसूत्र स्थविरावली में है और यह स्थविरावली भी गुरु-शिष्य परम्परा की सूचक नहीं है। अतः बीच में कुछ नाम छूटने की सम्भावना है जिसकी पुष्टि स्वयं मुनि कल्याणविजयजी ने भी की है। 49 इस प्रकार आर्य मंगु के अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर महावीर के निर्वाण काल का निर्धारण सम्भव नहीं है। क्योंकि इस आधार पर ई. पू. 527 की परम्परागत मान्यता ई. पू. 467 की विद्वन्मान्य मान्यता दोनों ही सत्य सिद्ध नहीं होती है । अभिलेख एवं पट्टावली का समीकरण करने पर इससे वीरनिर्वाण ई. पू. 360 के लगभग फलित होता है। इस अनिश्चता का कारण आर्य मंगु के काल को लेकर विविध भ्रान्तियों की उपस्थिति है।
भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार
जहाँ तक आर्य नन्दिल का प्रश्न है हमें उनके नाम का उल्लेख भी नन्दिसूत्र में मिलता है। नन्दिसूत्र में उनका उल्लेख आर्य मंगु के पश्चात् और आर्य नागहस्ति के पूर्व मिलता है 50 मथुरा के अभिलेखों में नन्दिक (नन्दिल) का एक अभिलेख शक सम्वत् 32 का है। दूसरे शक सं. 93 के लेख में नाम स्पष्ट नहीं है, मात्र "न्दि" मिला है। 51 आर्य नन्दिल का उल्लेख प्रबन्धकोश एवं कुछ प्राचीन पट्टावलियों में भी है उल्लेख नहीं होने से इस अभिलेखीय साक्ष्य के निर्धारण सम्भव नहीं है ।
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किन्तु कहीं पर भी उनके समय का आधार पर महावीर के निर्वाणकाल का
अब हम नागहस्ति की ओर आते हैं सामान्यतया सभी पट्टावलियों में आर्य वज्र का स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं. 584 में माना गया है। आर्य वज्र के पश्चात् 13 वर्ष आर्य रक्षित, 20 वर्ष पुष्यमित्र और 3 वर्ष वज्रसेन युगप्रधान रहे अर्थात् वीरनिर्वाण सं. 620 में वज्रसेन का स्वर्गवास हुआ। मेरुतुंग की विचारश्रेणी में इसके बाद आर्य निर्वाण 621 से 690 तक युगप्रधान रहे 152 यदि मथुरा अभिलेख के हस्तहस्ति ही नागहस्ति हो तो माधहस्ति के गुरु के रूप में उनका उल्लेख शक सं. 54 के अभिलेख में मिलता है अर्थात् वे ई. सन् 132 के पूर्व हुए हैं। यदि हम वीरनिर्वाण ई. पू. 467 मानते हैं तो उनका युग प्रधान काल ई. सन् 154-223 आता है । अभिलेख उनके शिष्य को ई. सन् 132 में होने की सूचना देता है यद्यपि यह मानकर सन्तोष किया जा सकता है युग प्रधान होने के 22 वर्ष पूर्व उन्होंने किसी को दीक्षित किया होगा । यद्यपि इनकी सर्वायु 100 वर्ष मानने पर तब उनकी आयु मात्र 11 वर्ष होगी और ऐसी स्थिति में उनके उपदेश से किसी का दीक्षित होना और उस दीक्षित शिष्य के द्वारा मूर्ति प्रतिष्ठा होना असम्भव सा लगता है । किन्तु यदि हम परम्परागत मान्यता के आधार पर वीरनिर्वाण को शक संवत् 605 पूर्व या ई. पू. 527 मानते हैं तो पट्टावलीगत उल्लेखों और अभिलेखीय साक्ष्यों में संगति बैठ जाती है। इस आधार पर उनका युग प्रधान काल शक सं. 16 से शक
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