Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 1
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 289
________________ 248 जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरुप परिवर्तन : एक विमर्श प्रति में नहीं मिलते हैं तो उन अंशों को परिवर्तित न किया जाये, क्योंकि सम्भावना यह हो सकती है कि वह अंश परवर्ती काल में प्रक्षिप्त हुआ हो, अतः उस अंश के प्रक्षिप्त होने का आधार जो उसका भाषिक स्वरूप है, उसको बदलने से आगमिक शोध में बाधा उत्पन्न होगी। उदाहरण के रूप में आचारांग के प्रारम्भ में "सुयं मे अउसंतेण भगवया एयं अक्खाय" के अंश को ही लें, जो सामान्यतया सभी प्रतियों में इसी रूप में मिलता है। यदि हम इसे अर्द्धमागधी में रूपान्तरित करके "सुतं मे आउसन्तेणं भगवता एवं अक्खाता" कर देगें तो इसके प्रक्षिप्त होने की जो सम्भावना है वह समाप्त हो जायेगी। अतः प्राचीनस्तर के आगमों में किस अंश के भाषिक स्वरूप को बदला जा सकता है और किसको नहीं, इस पर गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। इसी सन्दर्भ में ऋषिभाषित के एक अन्य उदाहरण पर भी विचार कर सकते हैं। इसमें प्रत्येक ऋषि के कथन को प्रस्तुत करते हुए सामान्यतया यह गद्यांश मिलता है -- अरहता इसिणा बुइन्तं, किन्तु हम देखते हैं कि इसके 45 अध्यायों से 37 में "बुइन्तं" पाठ हैं, जबकि 7 में "बुझ्यं" पाठ हैं। ऐसी स्थिति में यदि इस "बुइयं" पाठ वाले अंश के आस-पास अन्य शब्दों के प्राचीन अर्द्धमागधी रूप मिलते हों तो "बुइय" को बुइन्तं में बदला जा सकता है। किन्तु यदि किसी शब्द रूप के आगे-पीछे के शब्द रूप भी महाराष्ट्री प्रभाव वाले हों, तो फिर उसे बदलने के लिए हमें एक बार सोचना होगा। कुछ स्थितियों में यह भी होता है कि ग्रन्थ की एक ही आदर्श प्रति उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में जब तक उनकी प्रतियाँ उपलब्ध न हो, तब तक उनके साथ छेड़-छाड़ करना उचित नहीं होगा। अतः अर्द्धमागधी या शौरसेनी के भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के किसी निर्णय से पूर्व सावधानी और बौद्धिक ईमानदारी की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में अन्तिम रूप से एक बात और निवेदन करना आवश्यक है, वह है कि यदि मूलपाठ में किसी प्रकार का परिवर्तन किया भी जाता है, तो भी इतना तो अवश्य ही करणीय होगा कि पाठान्तरों के रूप में अन्य उपलब्ध शब्द रूपों को भी अनिवार्य रूप से रखा जाय, साथ ही भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति आधार रूप में मान्य की गयी हो उसकी मूल प्रति छाया को भी प्रकाशित किया जाय, क्योंकि छेड़-छाड़ के इस क्रम में जो साम्प्रदायिक आग्रह कार्य करेंगे, उससे ग्रन्थ की मौलिकता को पर्याप्त धक्का लग सकता है। आचार्य शान्तिसागरजी और उनके समर्थक कुछ दिगम्बर विद्वानों द्वारा षट्खण्डागम (1/1/93 ) में से "संजद" पाठ को हटाने की एवं श्वेताम्बर परम्परा में मुनि श्री फूलचन्द जी द्वारा परम्परा के विपरीत लगने वाले कुछ आगम के अंशों को हटाने की कहानी अभी हमारे सामने ताजा ही है। यह तो भाग्य ही था कि इस प्रकार के प्रयत्नों को दोनों ही समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने स्वीकार नहीं किया और इस प्रकार से सैद्धान्तिक संगति के नाम पर जो कुछ अनर्थ हो सकता था, उससे हम बच गये। किन्तु आज भी "षट्खण्डागम" के ताम्र पत्रों एवं प्रथम संस्करण की मुद्रित प्रतियों में संजद शब्द अनुपस्थित है, इसी प्रकार फूलचन्द जी द्वारा सम्पादित अंग-सुत्ताणि में कुछ आगम पाठों का जो विलोपन हुआ है वे प्रतियाँ तो भविष्य में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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