Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 1
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 287
________________ जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श वाची था, महाराष्ट्री के प्रभाव से आगे चलकर "खेयण्ण" बन गया और उसे " खेदज्ञ" का वाची मान लिया गया। इसकी चर्चा प्रो. के. आर. चन्द्रा ने श्रमण 1992 में प्रकाशित अपने लेख में की है । अतः स्पष्ट है कि इन परिवर्तनों के कारण अनेक स्थलों पर बहुत अधिक अर्थभेद भी हो गये हैं। आज वैज्ञानिक रूप से सम्पादन की जो शैली विकसित हुई है उसके माध्यम से इन समस्याओं के समाधान की अपेक्षा है। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया था कि आगमिक एवं आगम तुल्य ग्रन्थों के प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने के लिए श्वेताम्बर परम्परा में प्रो. के. आर. चन्द्रा और दिगम्बर परम्परा में आचार्य श्री विद्यानन्द जी के सानिध्य में श्री बलभद्र जैन ने प्रयत्न प्रारम्भ किया है। किन्तु इन प्रयत्नों का कितना औचित्य है और इस सन्दर्भ में किन-किन सावधानियों की आवश्यकता है, यह भी विचारणीय है। यदि प्राचीन रूपों को स्थिर करने का यह प्रयत्न सम्पूर्ण सावधानी और ईमानदारी से न हुआ, तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। 246 प्रथमतः प्राकृत के विभिन्न भाषिक रूप लिये हुए इन ग्रन्थों में पारस्परिक प्रभाव और पारस्परिक अवदान को अर्थात् किसने किस परम्परा से क्या लिया है, इसे समझने के लिए आज जो सुविधा है, वह इनमें भाषिक एकरूपता लाने पर समाप्त हो जायेगी । आज नमस्कार मंत्र में "नमो" और " णमो" शब्द का जो विवाद है, उसका समाधान और कौन शब्दरूप प्राचीन है इसका निश्चय, हम खारवेल और मथुरा के अभिलेखों के आधार पर कर सकते हैं और यह कह सकते हैं कि अर्द्धमागधी का " नमो" रूप प्राचीन है, जबकि शौरसेनी और महाराष्ट्री का " णमो" रूप परवर्ती है। क्योंकि ई. की दूसरी शती तक अभिलेखों में कहीं भी " णमो" रूप नहीं मिलता। जबकि छठी शती से दक्षिण भारत के जैन अभिलेखों में "णमो" रूप बहुतायत से मिलता है। इससे फलित यह निकलता है कि णमो रूप परवर्ती है और जिन ग्रन्थों ने "न" के स्थान पर "ण" की बहुलता है, वे ग्रन्थ भी परवर्ती हैं। यह सत्य है कि "नमो" से परिवर्तित होकर ही " णमो" रूप बना है। जिन अभिलेखों में "णमो" रूप मिलता है वे सभी ई. सन् की चौथी शती के बाद के ही हैं। इसी प्रकार से नमस्कार मंत्र की अन्तिम गाथा में एसो पंच नमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलांण च सव्वेसिं पढ़मं हवइ मंगलं ऐसा पाठ है । इनमें प्रयुक्त प्रथमाविभक्ति में " एकार" के स्थान पर " ओकार" का प्रयोग तथा "हवति" के स्थान "हवइ" शब्द रूप का प्रयोग यह बताता है कि इसकी रचना अर्द्धमागधी से महाराष्ट्री के संक्रमणकाल के बीच की है और यह अंश नमस्कार मंत्र में बाद में जोड़ा गया है। इसमें शौरसेनी रूप " होदि" या "हवदि" के स्थान पर महाराष्ट्री शब्द रूप "हवई" है जो यह बताता यह अंश मूलतः महाराष्ट्री में निर्मित हुआ था और वही से ही शौरसेनी में लिया गया है। -- इसी प्रकार शौरसेनी आगमों में भी इसके "हवई" शब्द रूप की उपस्थिति भी यही सूचित करती है कि उन्होंने इस अंश को परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थों से ही ग्रहण किया गया है। अन्यथा वहाँ मूल शौरसेनी का "हवदि" या "होदि" रूप ही होना था। आज यदि किसी को शौरसेनी का अधिक आग्रह हो, तो क्या वे नमस्कार मंत्र के इस "हवई" शब्द को "हवदि" या "होदि" रूप में परिवर्तित कर देंगे ? जबकि तीसरी-चौथी शती से आज तक कहीं भी " हवइ" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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