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प्रो. सागरमल जैन
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श्रद्धा और भक्ति :
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भक्ति में श्रद्धा का तत्त्व प्रमुख होता है, किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि श्रद्धा एवं भक्ति में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर भी है। श्रद्धा और भक्ति में मुख्य अन्तर तो यह है कि जहां श्रद्धा आराध्य अथवा सिद्धान्त अथवा दोनों के प्रति हो सकती है, वहीं भक्ति सदैव ही आराध्य के प्रति होती है, सिद्धान्त के प्रति नहीं । सिद्धान्त के प्रति तो मात्र श्रद्धा / आस्था होती है, भक्ति नहीं। क्योंकि भक्ति वैयक्तिक ( Personal ) होती है । पुनः जहां भक्ति के लिए श्रद्धा आवश्यक तत्त्व है। वहां श्रद्धा के लिए भक्ति आवश्यक नहीं। अपने प्रचलित अर्थ की दृष्टि से श्रद्धा और भक्ति में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह भी है कि श्रद्धा मात्र एक निष्क्रिय भाव- दशा है, वह किसी के प्रति अनन्य निष्ठा की द्योतक है और वह निष्ठा सिद्धान्त अथवा व्यक्ति किसी के प्रति भी हो सकती है। श्रद्धा कारण है, भक्ति कार्य । भक्ति तो श्रद्धा की बाह्याभिव्यक्ति है, वह चित्त की सक्रिय भाव दशा है। पूज्य - बुद्धि और पूजा में जो अन्तर है वहीं अन्तर श्रद्धा और भक्ति में है। श्रद्धा पूज्य - बुद्धि है, पूजा नहीं । पूजा पूज्य - बुद्धि की बाह्याभिव्यक्ति है। सत्य तो यह है कि श्रद्धा जब सक्रिय होकर क्रियात्मक रूप में बाह्य जगत् में अभिव्यक्त होती है, तो वह भक्ति बन जाती है । वह श्रद्धा एवं कर्म का समन्वय है । वह श्रद्धा युक्त कर्म है ! निर्गुण भक्ति में भी चाहे प्रतिमा पूजा या अर्चा न हो, किन्तु नाम-स्मरण, संकीर्तन आदि कर्मों तथा विह्वलता आदि भावों की बाह्य अभिव्यक्ति तो है ही, श्रद्धा और भक्ति दोनों ही वैयक्तिक है, सार्वजनिक नहीं । फिर भी श्रद्धा नितान्त वैयक्तिक है, मात्र चैत्तसिक है, उसे किसी भी स्थिति में सामूहिक नहीं बनाया जा सकता है, वहां भक्ति के नाम संकीर्तन, पूजा, अर्चा आदि रूपों में बाह्य अभिव्यक्ति सम्भव होने से उसे सामूहिक या सार्वजनिक बनाया जा सकता है। यदि हम भक्ति के घटकों की चर्चा करें तो उसमें श्रद्धा, प्रेम, सर्मपण, नाम-स्मरण, स्तुति, विग्रह पूजा और सेवा सभी समाहित है। इस प्रकार भक्ति एक व्यापक परिप्रेक्ष्य को अभिव्यक्त करती है। श्रद्धा तो भक्ति का एक अंग मात्र है, भक्ति में श्रद्धा आवश्यक है, किन्तु श्रद्धा भक्ति का रूप ले ही यह आवश्यक नहीं है। जैनधर्म में जब हम भक्ति की चर्चा करते हैं तो हमें श्रद्धा एवं भक्ति के इस अन्तर को दृष्टिगत रखना होगा। क्योंकि जैनधर्म मूलतः निवृत्ति परक है, अतः उसमें श्रद्धा की ही प्रधानता रही है । पुनः जैनधर्म निरीश्वरवादी है, अतः उसमें श्रद्धा या भक्ति का केन्द्र सृष्टिकर्त्ता या जगत् नियन्ता ईश्वर न होकर शुद्धात्मस्वरूप वीतराग दशा ही रही है। उसकी श्रद्धा के केन्द्र हैं। देव ( वीतरागदशा प्राप्त व्यक्ति), गुरू और धर्म । किन्तु जैन धर्म में जैसे ही प्रतीकोपासना या जिन प्रतिमा की पूजा की परम्परा स्वीकृत हुई, उसमें तीर्थंकर प्रतिमा की उपासना के साथ भक्ति के अन्य पक्षों का विकास प्रारम्भ हो गया ।
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भारत में भक्ति की अवधारणा का विकास :
भारतीय धर्मदर्शन के क्षेत्र में भक्ति की अवधारणा अति प्राचीन काल से उपस्थित रही है। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त हुई सीलों के परिदृश्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस समय भी मूर्ति पूजा या प्रतीक पूजा अस्तित्व में थी और इस दृष्टि से यह
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