Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 1
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 233
________________ 192 ऋग्वेद में अर्हत और ऋषभवाची ऋचायें : एक अध्ययन से युक्त नित्य और नैमित्तिक परमात्मा के बोध के दो उन्नति और मोक्ष रूप शिर स्थानापन्न तीन अर्थात् कर्म, उपासना और ज्ञान रूप चलने योग्य पैर और चार वेद श्रृगो के सदृश आप लोगों को जानने योग्य हैं और इस धर्म व्यवहार के पाँच ज्ञानेन्द्रिय वा पाँच कर्मेन्द्रिय अन्तःकरण और आत्मा ये सात हाथों के सदृश वर्तमान है, और उक्त तीन प्रकार से बधाँ हुआ व्यवहार भी जानने योग्य है22 1 किन्तु यदि इस उपर्युक्त ऋचा का अर्थ जैन दृष्टि से करें तो तीन योगों अर्थात् मन, वचन व काय से बद्ध या युक्त ऋषभ देव ने यह उद्घोषणा की कि महादेव अर्थात् परमात्मा मृत्यों में ही निवास करता है, उसके अनन्त चतुष्ठय रूप अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन अनन्त सुख व अनन्त वीर्य ऐसे चार श्रृङ्ग हैं और सम्यक् दर्शन, ज्ञान व चारित्र रूप तीन पाद हैं। उस परमात्मा के ज्ञान उपयोग व दर्शन-उपयोग ऐसे दो शीर्ष हैं तथा पाँच इन्द्रियां, मन व बुद्धि ऐसे सात हाथ हैं। श्रृङ्ग आत्मा के सर्वोत्तम दशा के सूचक हैं जो साधना की पूर्णता पर अनन्त चतुष्टय के रूप में प्रकट होते हैं और पाद उस साधना मार्ग के सूचक हैं जिसके माध्यम से उस सर्वोत्तम आत्म अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। सप्त हस्त ज्ञान प्राप्ति के सात साधनों को सूचित करते हैं। ऋषभ को त्रिधाबद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि वह मन वचन एवं काय योगों की उपस्थिति के कारण ही संसार में है। बद्ध का अर्थ संयत या नियन्त्रित करने पर मन, वचन, व काय से संयत ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि यहां जैन दृष्टि से किया लाक्षणिक अर्थ उतना ही समीचीन है, जितना स्वामी दयानन्द का लाक्षणिक अर्थ । इतना अवश्य सत्य है कि इस ऋचा का कोई भी शब्दानुसारी अर्थ इसके अर्थ को अभिव्यक्त नहीं कर सकता है। अतः हमें मानना होगा कि वैदिक ऋचाओं के अर्थ को समझने के लिए इनकी लाक्षणिकता को स्वीकार किये बिना अन्य कोई विकल्प नहीं है। सायण आदि वेदों के भाष्यकारों ने सामान्य रूप में 'वृषभ' शब्द की व्याख्या एक विशेषण के रूप में की है और उसका प्रसंगानुसार बलवान, श्रेष्ठ, वर्षा करने वाला, कामनाओं की पूर्ति करने वाला-ऐसा अर्थ किया है। वे वषभ को इन्द्र, अग्नि, रुद्र आदि वैदिक देवताओं का एक विशेषण मानते हैं एवं इसी रूप में उसे व्याख्यायित भी करते हैं। चाहे वृषभ का अर्थ बलवान या श्रेष्ठ करें अथवा उसे वर्षा करने वाला या कामनाओं की पूर्ति करने वाला कहे, वह एक विशेषण के रूप में ही गृहीत होता है। यह सत्य है कि अनेक प्रसंगों में वृषभ शब्द की व्याख्या एक विशेषण के रूप में की जा सकती है। स्वयं जैन एवं बौद्ध परम्पराओं में भी वृषभ शब्द का प्रयोग एक विशेषण के रूप में हुआ है। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद के अन्त में एक गाथा में वृषभ शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में हुआ है। वह गाथा निम्नानुसार है-- उसमें पवरं वीरं महसिं विजिताविनं। अनेज नहातकं बुद्धं तमहं बूमि ब्राह्मणं ।। - धम्मपद 26 140 अतः इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं की जा सकती है कि वृषभ शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में नहीं हो सकता, किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता कि वृषभ शब्द सर्वत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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