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जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन एक विमर्श
- प्रो. सागरमल जैन
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प्राकृत एक भाषा न होकर, भाषा समूह है। प्राकृत के इन अनेक भाषिक रूपों का उल्लेख हेमचन्द्र प्रभृति प्राकृत-व्याकरण-विदों ने किया है। प्राकृत के जो विभिन्न भाषिक रूप उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न भाषिक वर्गों में विभक्त किया जाता है। मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, जैन - शौरसेनी, महाराष्ट्री, जैन महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड, चूलिका, ठक्की आदि। इन विभिन्न प्राकृतों से ही आगे चलकर अपभ्रंश के विविध रूपों का विकास हुआ और जिनसे कालान्तर में असमिया, बंगला, उड़िया, भोजपुरी या पूर्वी हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि भारतीय भाषायें अस्तित्व में आयीं । अतः प्राकृतें सभी भारतीय भाषाओं की पूर्वज है और आधुनिक हिन्दी का विकास भी इन्हीं के आधार पर हुआ ।
मेरी दृष्टि में संस्कृत भाषा का विकास भी इन्हीं प्राकृतों को संस्कारित करके और विभिन्न बोलियों के मध्य एक सामान्य सम्पर्क भाषा के रूप में हुआ है, जिसका प्राचीन रूप छान्दस (वैदिक संस्कृत ) था । वही साहित्यिक संस्कृत की जननी है। जिस प्रकार विभिन्न उत्तर भारतीय बोलियों ( अपभ्रंश के विविध रूपों) से हमारी हिन्दी भाषा का विकास हुआ है, उसी प्रकार प्राचीनकाल में विभिन्न प्राकृत बोलियों से संस्कृत भाषा का निर्माण हुआ । संस्कृत शब्द ही इस तथ्य का प्रमाण है कि वह एक संस्कारित भाषा है, जबकि प्राकृत शब्द ही प्राकृत को मूल भाषा के रूप में अधिष्ठित करता है। प्राकृत की "प्रकृतिर्यस्य संस्कृतम्” कहकर जो व्याख्या की जाती है, वह मात्र संस्कृत-विदों को प्राकृत-व्याकरण का स्वरूप समझाने की दृष्टि से की जाती है।
प्राकृत के सन्दर्भ में हमें एक दो बातें और समझ लेना चाहिए। प्रथम सभी प्राकृत व्याकरण संस्कृत में लिखे गये हैं, क्योंकि उनका प्रयोजन संस्कृत के विद्वानों को प्राकृत भाषा के स्वरूप का ज्ञान कराना रहा है। वास्तविकता तो यह है कि प्राकृत भाषा की आधारगत बहुविधता के कारण उसका कोई एक सम्पूर्ण व्याकरण बना पाना ही कठिन है । उसका विकास विविध बोलियों से हुआ है और बोलियों में विविधता होती है। साथ ही उनमें देश कालगत प्रभावों और मुख-सुविधा (उच्चारण सुविधा) के कारण परिवर्तन होते रहते हैं। प्राकृत निर्झर की भाँति बहती भाषा है उसे व्याकरण में आबद्ध कर पाना सम्भव नहीं है। इसीलिए प्राकृत को "बहुलं" अर्थात् विविध वैकल्पिक रूपों वाली भाषा कहा जाता है I
वस्तुतः प्राकृतें अपने मूल रूप में भाषा न होकर बोलियाँ ही रहीं हैं। यहाँ तक कि साहित्यिक नाटकों में भी इनका प्रयोग बोलियों के रूप में ही देखा जाता है और यही कारण है कि मृच्छकटिक जैसे नाटक में अनेक प्राकृतों का प्रयोग हुआ है, उसके विभिन्न पात्र भिन्न-भिन्न प्राकृतें बोलते हैं। इन विभिन्न प्राकृतों में से अधिकांश का अस्तित्व मात्र बोली के रूप में ही रहा, जिनके निदर्शन केवल नाटकों और अभिलेखों में पाये जाते हैं। मात्र अर्द्धमागधी,
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