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प्रो. सागरमल जैन
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उल्लेख मिलते हैं, किन्तु स्कंदिल की वाचना के पाठ भेदों का कोई निर्देश नहीं है। स्कंदिल की वाचना सम्बन्धी पाठभेदों का यह अनुल्लेख विचारणीय है। नन्दीसूत्र में स्कंदिल के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि उनके अनुयोग (आगम-पाठ) ही दक्षिण भारत क्षेत्र में आज भी प्रचलित हैं। सम्भवतः यह संकेत यापनीय आगमों के सम्बन्ध में होगा। यापनीय परम्परा जिन आगमों को मान्य कर रही थी, उसमें व्यापक रूप से भाषिक परिवर्तन किया गया था और उन्हें शौरसेनी रूप दे दिया गया था। यद्यपि आज प्रमाण के अभाव में निश्चित रूप से यह बता पाना कठिन है कि यापनीय आगमों की भाषा का स्वरूप क्या था, क्योंकि यापनीयों द्वारा मान्य और व्याख्यायित वे आगम उपलब्ध नहीं है। यद्यपि अपराजित के द्वारा दशवैकालिक पर टीका लिखे जाने का निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु वह टीका भी आज प्राप्त नहीं है। अतः यह कहना तो कठिन है कि यापनीय आगमों की भाषा कितनी अर्द्धमागधी थी और कितनी शौरसेनी। किन्तु इतना तय है कि यापनीयों ने अपने ग्रन्थों में आगमों, प्रकीर्णकों एवं नियुक्तियों की जिन गाथाओं को गृहीत किया है अथवा उद्धृत किया है वे सभी आज शौरसेनी रूपों में ही पायी जाती है। यद्यपि आज भी उन पर बहुत कुछ अर्द्धमागधी का प्रभाव शेष रह गया है। चाहे यापनीयों ने सम्पूर्ण आगमों के भाषाई स्वरूप को अर्द्धमागधी से शौरसेनी में रूपान्तरित किया हो या नहीं, किन्तु उन्होंने आगम साहित्य से जो गाथाएँ उद्धृत की हैं, वे अधिकांशतः आज अपने शौरसेनी स्वरूप में पायी जाती हैं। यापनीय आगमों के भाषिक स्वरूप में यह परिवर्तन जानबूझकर किया या जब मथुरा जैनधर्म का केन्द्र बना तब सहज रूप में यह परिवर्तन आ गया था, यह कहना कठिन है। जैनधर्म सदैव से क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाता रहा और यही कारण हो सकता है कि श्रुत-परम्परा से चली आयी इन गाथाओं में या तो सहज ही क्षेत्रीय प्रभाव आया हो या फिर उस क्षेत्र की भाषा को ध्यान में रखकर उसे उस रूप में परिवर्तित किया गया हो।
यह भी सत्य है कि बलभी में जो देवर्धिगणि की अध्यक्षता में वी.नि.सं. 980 या 993 में अन्तिम वाचना हुई, उसमें क्षेत्रगत महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव जैन आगमों पर विशेषरूप से आया होगा, यही कारण है कि वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य अर्द्धमागधी आगमों की भाषा का जो स्वरूप उपलब्ध है, उस पर महाराष्ट्री का प्रभाव ही अधिक है। अर्द्धमागधी आगमों में भी उन आगमों की भाषा महाराष्ट्री से अधिक प्रभावित हुई है, जो अधिक व्यवहार या प्रचलन में रहे। उदाहरण के रूप में उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगम महाराष्ट्री से अधिक प्रभावित हैं। जबकि ऋषिभाषित जैसा आगम महाराष्ट्री के प्रभाव से बहुत कुछ मुक्त रहा है। उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव अत्यल्प है। आज अर्धमागधी का जो आगम साहित्य हमें उपलब्ध है, उसमें अर्द्धमागधी का सर्वाधिक प्रतिशत इसी ग्रन्थ में पाया जाता है।
जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्द्धमागधी तथा शौरसेनी ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता है। वस्तुतः इन ग्रन्थों में हुए भाषिक परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण हैं, जिन पर हम क्रमशः विचार करेंगे। 1. भारत में जहाँ वैदिक परम्परा में वेद वचनों को मंत्र मानकर उनके स्वर-व्यंजन की
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