Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 1
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 283
________________ 242 जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श देखी जाती है। प्राचीन आगमों में हुए इन भाषिक परिवर्तनों से उनके अर्थ में भी कितनी विकृति आयी, इसका भी डॉ. चन्द्रा ने अपने लेखों के माध्यम से संकेत किया है तथा यह बताया है कि अर्द्धमागधी "खेतन्न" शब्द किस प्रकार "खेयन्न" बन गया और उसका जो मूल "क्षेत्रज्ञ" अर्थ था वह बदलकर "खेदज्ञ" हो गया। इन सब कारणों से उन्होंने पाठ संशोधन हेतु एक योजना प्रस्तुत की और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की भाषा का सम्पादन कर उसे प्रकाशित भी किया है। इसी क्रम में मैंने भी आगम संस्थान उदयपुर के डॉ. सुभाष कोठारी एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया द्वारा आचारांग के विभिन्न प्रकाशित संस्करणों से पाठान्तरों का संकलन करवाया है। इसके विरोध में पहला स्वर श्री जौहरीमल जी पारख ने उठाया है। श्वेताम्बर विद्वानों में आयी इस चेतना का प्रभाव दिगम्बर विद्वानों पर भी पड़ा और आचार्य श्री विद्यानन्द जी के निर्देशन में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को पूर्णतः शौरसेनी में स्पान्तरित करने का एक प्रयत्न प्रारम्भ हुआ है, इस दिशा में प्रथम कार्य बलभद्र जैन द्वरा सम्पादित समयसार, नियमसार आदि का कुन्दकुन्द भारती से प्रकाशन है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में ही पं. खुशालचन्द गोरावाला, पद्मचन्द्र शास्त्री आदि दिगम्बर विद्वानों ने इस प्रवृत्ति का विरोध किया। आज श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में आगम या आगम रूप में मान्य ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप के पुनः संशोधन की जो चेतना जागृत हुई है, उसका कितना औचित्य है, इसकी चर्चा तो मैं बाद में करूँगा। सर्वप्रथम तो इसे समझना आवश्यक है कि इन प्राकृत आगम ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में किन कारणों से और किस प्रकार के परिवर्तन आयी हैं। क्योंकि इस तथ्य को पूर्णतः समझे बिना केवल एक-दूसरे के अनुकरण के आधार पर अथवा अपनी परम्परा को प्राचीन सिद्ध करने हेतु किसी ग्रन्थ के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कर देना सम्भवतः इन ग्रन्थों के ऐतिहासिक क्रम एवं काल निर्णय एवं इनके पारस्परिक प्रभाव को समझने में बाधा उत्पन्न करेगा और इससे कई प्रकार के अन्य अनर्थ भी सम्भव हो सकते हैं। किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि जैनाचार्यों एवं जैन विद्वानों ने अपने भाषिक व्यामोह के कारण अथवा प्रचलित भाषा के शब्द रूपों के आधार पर प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन किया है। जैन आगमों की वाचना को लेकर जो मान्यताएँ प्रचलित हैं, उनके अनुसार सर्वप्रथम ई.पू. तीसरी शती में वीर निर्वाण के लगभग एक सौ पचास वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में प्रथम वाचना हुई। इसमें उस काल तक निर्मित आगम ग्रन्थों, विशेषतः अंग आगमों का सम्पादन किया गया। यह स्पष्ट है कि पटना की यह वाचना मगध में हुई थी और इसलिए इसमें आगमों की भाषा का जो स्वरूप निर्धारित हुआ होगा, वह निश्चित ही मागधी रहा होगा। इसके पश्चात् लगभग ई.पू. प्रथम शती में खारवेल के शासन काल में उड़ीसा में द्वितीय वाचना हुई यहाँ पर इसका स्वरूप अर्द्धमागधी रहा होगा, किन्तु इसके लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् स्कंदिल और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में क्रमशः मथुरा व वलभी में वाचनाएँ हुई। सम्भव है कि मथुरा में हुई इस वाचना में अर्द्धमागधी आगमों पर व्यापक रूप से शौरसेनी का प्रभाव आया होगा। वलभी के वाचना वाले आगमों में नागार्जुनीय पाठों के तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310